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विषय भोग, नहीं हैं निकाली
अंदर उसे ऐसा अभिप्राय रहता है कि 'इसमें सुख है'। यह तो खुद ही वकील, खुद ही जज और खुद ही अभियुक्त । इसलिए फिर जजमेन्ट अपनी ओर खींच ले जाता है । हम अभिप्राय - ब्रह्मचर्य को ब्रह्मचर्य कहते हैं । निर्विषयी होना ही पड़ेगा
निर्विषयी होना पड़ेगा। ब्रह्मचय के बारे में कोई बात ही नहीं करता न? क्योंकि लोग व्यापारी हो गए हैं । ब्रह्मचर्य की बात करनी चाहिए। कषायों की बात करनी चाहिए । विषय कषाय की वजह से ही मोक्ष में नहीं जा रहा। जिन के पास क्रोध - मान-माया - लोभ की पूँजी है, तब तक वह इन्हें निकालने की बात कर ही नहीं सकता न । जब तक खुद के पास इतनी सारी पूँजी हो, तब तक अन्य किसी को कहेगा ही नहीं । जब खुद के पास पूँजी नहीं रहे, तभी सामनेवाले से इस बारे में बात की जा सकती है।
प्रश्नकर्ता : विषय से संबंधित ऐसी बातें अन्यत्र कहीं हुई ही नहीं
दादाश्री : विषय को लोग ढँकना चाहते हैं। खुद गुनहगार हैं, इसलिए ढँकते हैं। कृपालुदेव खुद कहते थे कि, 'यह विषय पसंद नहीं है, फिर भी मैं भोग रहा हूँ ।' और तब उन्होंने कितना सुंदर भक्तिपद लिखा! अब उस भक्तिपद में ऐसा सब पढ़ें तब लोगों के मन में ऐसा हो जाता है कि यह तो बीवी-बच्चे छोड़ देने की बात है । इसलिए लोग परेशान हो जाते हैं। तब फिर लोग पढ़ा हुआ, एक तरफ रख देते हैं और कहते हैं कि यह उन्होंने लिखा है । वे तो भले ही लिखते रहें। इसके बावजूद उनकी बेटियाँ थीं। यानी वस्तुस्थिति में ऐसा है । लोग बाहर का देखते हैं कि, ‘कृपालुदेव तो शादीशुदा थे, और उनकी बेटियाँ थीं।' इसके बावजूद भी उन्होंने खुद ही कहा है कि, 'यह गलत है, फिर भी मैं भोग रहा हूँ ।'
प्रश्नकर्ता : जिन-जिन भूलों के होने की वजह से वह हो गया, वह फिर से नहीं आनेवाला, लेकिन अब तो ऐसा रहता है कि यह कैसी भूल हो गई ? यह तो बहुत गलत है।