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समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य (उत्तरार्ध)
को लालच होता है, लेकिन हमें क्यों लालच होना चाहिए? क्या कभी लालच होना चाहिए?
चूहा पिंजरे में कब आता है? पिंजरे में कब पकड़ा जाता है ? प्रश्नकर्ता : लालच होता है, तब।
दादाश्री : हाँ, पराठे की सुगंध आई और पराठा खाने गया कि तुरंत अंदर फँस जाता है। पिंजरे में पराठा देखा कि बाहर रहे-रहे वह अधीर होता रहता है कि, 'कब घुसूं, कब घुसूं?' फिर अंदर घुसे तो चूहेदानी 'ऑटोमेटिक' बंद हो जाती है। इन्सानों को ऐसा सब 'ऑटोमेटिक' आता है सब। ऐसे अपनेआप ही बंद हो जाता है। अतः सर्व दुःखों की जड़ लालच है।
विषय का लालच, कैसी हीन दशा प्रश्नकर्ता : अब विषय में सुख लिया, तो उसके परिणाम स्वरूप ये क्लेश, झगड़े आदि सब होते हैं न?
दादाश्री : सब विषय में से ही खड़ा हुआ है और फिर सुख कुछ भी नहीं। सुबह-सुबह मानो अरंडी का तेल पीया हो, ऐसा चेहरा होता है!
प्रश्नकर्ता : इससे तो कँप-कॅपी छूट जाती है कि इतने सारे दुःख ये लोग सहन करते हैं, इतने से सुख के लिए!
दादाश्री : वही लालच है न, विषय भोगने का! वह तो फिर जब वहाँ नर्कगति के दुःख भुगतता है न, तब पता चलता है कि क्या स्वाद है इसमें! और विषय का लालच, वह तो जानवर ही कह दो न! विषय के प्रति घृणा उत्पन्न हो तभी विषय बंद होता है। वर्ना विषय कैसे बंद होगा?