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विषय वह पाशवता ही
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विषय के संबंध में किसी ने सोचा ही नहीं, लोकसंज्ञा से। उसके बाद उसमें क्या-क्या दोष हैं, यह देखा ही नहीं किसी जगह पर। जितना दोष दुनिया में किसी और चीज़ में नहीं होगा, उतना दोष अब्रह्मचर्य में है। लेकिन जानते ही नहीं हों तो क्या हो सकता है ? यही लोकसंज्ञा चली आई है, पाशवता की ही। जैसा पशु में भी नहीं होता, मनुष्यों की वह लीला देखकर अचरज ही होगा न!
दक्षिण में आम के बारहमासी पेड़ होते हैं, केरल में। उसमें बारह महीनों, एक डाल इस महीने में, दूसरी डाल दूसरे महीने में, तीसरी डाल तीसरे महीने में आम देती रहती है। इसी तरह ये लोग बारहमासी हैं न, अब्रह्मचर्य में! क्या पशुओं की तरह महीनेभर के लिए हैं या पंद्रह दिन के लिए ही हैं?
प्रश्नकर्ता : इस पर किसी ने सोचा ही नहीं।
दादाश्री : भान ही नहीं है इस चीज़ का। फिर भी प्रकृति बंधी हुई हो तो शादी करना और शादी के बाद भी महीने में दो-तीन बार होना चाहिए।
सिर्फ इतने समय तक ही, ऋषिमुनिओं जैसा होना चाहिए। फिर पूरी ज़िंदगी मित्रतापूर्वक रहें। पहले शुरूआत में शादी होते ही दो-तीन साल ज़रा परिचय रहे, वह भी कितना परिचय? मन्थली कोर्स के बाद पूरे महीने में पाँच ही दिन, उसके बाद नहीं। प्रत्येक मन्थली कोर्स के बाद, एक-दो पुत्र या पुत्री हो गए, उसके बाद सदा के लिए बंद। फिर वह दृष्टि ही नहीं।
कैसे थे वे ऋषि-मुनि एक पुत्रदान की तो अवश्य ज़रूरत है, जिसे मोह है उसके लिए। गलत नहीं है, चिढ़ रखने जैसी चीज़ नहीं है। लेकिन जो लोग इसमें सुख मान बैठे हैं, वह एक पाशवता है। पशु कभी भी इसमें सुख नहीं मानते। वर्ना उनके यहाँ कहाँ कोई पुलिसवाला है या कोई बाधक है? कोई मना करता है ? लेकिन है उन्हें कोई झंझट? साथ में ही घूमते-फिरते हैं, लेकिन झंझट नहीं है न? ये तो मनुष्य में आए और जंगली रहे। हिन्दुस्तान में