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समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य (उत्तरार्ध)
प्रश्नकर्ता : री-न्यू (नवीनीकरण)।
दादाश्री : हाँ, हर बार एक साल का व्रत देता हूँ। मन यदि कमज़ोर पड़ जाए तो बीच में दो महीने की छूट देता हूँ और बाद में फिर से विधि कर देता हूँ। कमज़ोर हो जाता है ऐसे! कोई जान-बूझकर कमज़ोर नहीं करता न! लेकिन मुश्किल खड़ी हो तो क्या होगा इन्सान का?
प्रश्नकर्ता : ब्रह्मचर्य की विधि करते समय क्या बोलना चाहिए
मुझे?
दादाश्री : कुछ नहीं। तू 'शुद्धात्मा' बोलना और बाकी सब मुझे बोलना है।
प्रश्नकर्ता : मुझे अखंड ब्रह्मचर्य पालन करने की शक्ति दीजिए, निरंतर निर्विकार रहने की शक्ति दीजिए।
दादाश्री : वह सब नहीं, वह सब मुझे करना है। तुझे तो भावना हुई, वह प्रकट की तूने कि मुझे ब्रह्मचर्य का पालन करना है, मुझे शक्ति दीजिए, तो हम दे देते हैं। 'मैं शुद्धात्मा हूँ' ऐसे बोलते रहना। ब्रह्मचर्यव्रत में ऐसा सुख है, ऐसा देखा?
प्रश्नकर्ता : ब्रह्मचर्य तो दुष्कर व्रत लेने जैसा है न?
दादाश्री : ब्रह्मचर्य दुष्कर तो है लेकिन वह ऐसे पद्धतिपूर्वक होगा न तो ब्रह्मचर्य सुंदर रहेगा। वह तो ऐसे ताले लगाने हों तो ब्रह्मचर्य दुष्कर है। मुँह पर ताला लगा दें तो कुछ खाया ही नहीं जाएगा न, स्वाद आएगा ही कैसे? वह काम का नहीं है, उसका अर्थ तो यह कि मन बिगड़ जाता है। खुला रखकर ज्ञान से खत्म करना चाहिए। ब्रह्मतर्यव्रत का ज्ञान से पालन करना चाहिए।
विचार ही बंद, व्रत के पश्चात् इन्हें तो, व्रत लेने के बाद जैसे चमत्कार हो गया, इसके बाद से बहुत सुंदर रहता है। उसका कारण यह है कि, 'सुख कहाँ से आता है'