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विषय सुख में दावे अनंत
अपवाद से ब्रह्मचारी.... विषय में सुख तो पूरा जगत्, जीवमात्र मान रहा है। सिर्फ यहाँ जो त्यागी हैं और वहाँ देवलोक में जो समकिती देव हैं, सिर्फ ये दोनों ही विषय में सुख नहीं मानते। जानवर भी विषय को सुख मानते हैं। लेकिन बेचारे जानवर, वे तो कर्माधीन भोगते हैं। उन्हें ऐसा कुछ नहीं है कि हमें हमेशा के लिए ऐसा ही चाहिए। मनुष्यों को तो हमेशा के लिए ही चाहिए। पति परदेश गया हो तो पत्नी को अच्छा नहीं लगता। पत्नी यदि मायके चली जाए छ: बारह महीनों के लिए, तो परेशान हो जाता है क्योंकि उसने सुख माना है उसमें। किस में माना है? इन त्यागियों को क्यों लगा होगा कि 'इसमें दुःख है?' क्या इसमें सुख नहीं है?
ऐसा है न कि ये गेहूँ, चावल, बाजरा, जलेबी, लड्डू, वगैरह सभी सुख नहीं ढूँढते। ये जो सारे फ्रूट होते हैं, कोई फ्रूट सुख ढूँढता है? ये दूध, दही, घी, आदि सब सुख ढूँढते हैं ?
प्रश्नकर्ता : नहीं ढूँढते।
दादाश्री : भगवान ने कहा है कि 'जो सुख ढूँढ रहा हो, वहाँ सुख मत ढूँढना। जो खुद, सुख ढूँढ रहा हो वहाँ सुख मत ढूँढना, जो सुख नहीं ढूँढ रहा, वहाँ सुख ढूँढना', कहा है। यानी जो सुख ढूँढ रहा है, उस भिखारी के वहाँ यदि हम सुख लेने जाएँ तो क्या फायदा? यानी भूमिका ही नहीं है, यह तो एक प्रकार का काल्पनिक फिगर है सिर्फ। कल्पना खडी की