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विषय सुख में दावे अनंत
२१९ है न? हम शिकायत करते हैं तभी तक न? बाकी उनकी किसी तरह की शिकायत नहीं है न! उन्हें छोड़ दें तो ज़बरदस्ती है कुछ? और जीवित लफड़ों के साथ तो कोई परेशानी हुई तो दावा करती है। आप दावा छोड़ दो, फिर वह दावा करती है। वही बहुत मुसीबत है!
दो मन, कभी नहीं हो सकते एक दो मन एकाकार हो ही नहीं सकते। इसलिए दावे शुरू हो ही जाते हैं। इस विषय के अलावा अन्य सभी विषयों में सिर्फ एक मन है, एक ही पक्ष है। इसलिए वह दावा नहीं करता! जबकि मनवालों के साथ तो जोखिम है। एक ही बार जिसके साथ विषय भोग किया हो तो उसकी कोख से जन्म लेना पड़ेगा, वर्ना वह जहाँ जाए, वहाँ जाना पड़ेगा! मिश्रचेतन के साथ शादी कर ली तो फिर क्या हो सकता है ? मिश्रचेतन के दावों की तो बड़ी मुसीबतें हैं! हमें बिल्कुल परवश कर देता है। इसलिए मिश्रचेतन का खाता रखने जैसा ही नहीं है। फिर भी यदि हो उसे क्या करना है? फिर उस खाते का समभाव से निकाल कर डालना है। खाता थोड़े ही फाड़ सकते हो? फेंक देने पर तो और ज्यादा चिपकेगा। अतः निरंतर जागृत रहकर उसका निकाल कर देना है।
शादी करने में हर्ज नहीं है। लेकिन हमेशा दोनों का मन अलग ही होता है और वहीं पर व्यापार करने जाएँ, तो द्वेष हुए बगैर नहीं रहता। फिर भले ही कोई भी व्यापार करो न! फिर वहाँ चाहे कितना भी पुरुषार्थ करो फिर भी भेद पड़े बगैर नहीं रहता न! अलग मनवालों में एकता कैसे संभव है? वह तो व्यापार का स्वाद जितने समय हो, उतने से समय तक के लिए ही दोनों के मनों की एकता रहती है! लेकिन यदि उस स्वाद में संतोष नहीं मिले तो फिर तूफ़ान खड़ा हो जाता है। अतः भेद पड़े बगैर रहता नहीं न! क्योंकि वह 'फाइल' है इसलिए दावा कर सकती है। यदि आप कहो, 'मुझे त्याग लेना है।' तब वह कहेगी, 'नहीं, नहीं जाने दूंगी।'
यह पूरा जगत् मिश्रचेतन की लपेट में ही है। यदि मिश्रचेतन समझ में आ जाए, तब तो यह जगत् लपेट में नहीं है। ये अन्य सभी शौक लपेट