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समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य (उत्तरार्ध)
होते हैं। उसमें शंका नहीं है। लेकिन दो-तीन साल अभ्यास करता है, बाद में ब्रह्मचर्य टेस्टेड! क्योंकि प्रतिक्रमण का हथियार शक्तिशाली है न! प्रतिक्रमण का हथियार इस्तेमाल करता रहे तो ऐसे करते-करते शुद्ध हो जाएगा। शुद्धिकरण में प्रवेश किया कि शुद्ध हो जाएगा।
अभिप्राय तो ब्रह्मचर्य का ही ब्रह्मचर्य, वह ज्ञानीपुरुष की आज्ञासहित होना चाहिए। उस आनंद की तो बात ही अलग है न! आत्मा प्राप्त होने के बाद भीतर से आनंद आता ही रहता है। लेकिन उस आनंद को रोकता कौन है ? तब कहे कि संसार का हिस्सा उसे खा जाता है। वह हमें आनंद नहीं भोगने देता। विषय की स्मृति बंद हो जाए तो उसके बाद अपार परमानंद रहता है।
ब्रह्मचर्य और अब्रह्मचर्य का जिन्हें अभिप्राय नहीं है, उसे ब्रह्मचर्यव्रत बर्तता है, ऐसा कहा जाएगा। आत्मा में निरंतर रहना, वही हमारा ब्रह्मचर्य है। फिर भी, हम इस बाहरी ब्रह्मचर्य को स्वीकार नहीं करते, ऐसा नहीं है। आप संसारी हो, इसलिए मुझे कहना पड़ता है कि अब्रह्मचर्य में एतराज़ नहीं है लेकिन अब्रह्मचर्य का अभिप्राय तो होना ही नहीं चाहिए। अभिप्राय तो ब्रह्मचर्य का ही होना चाहिए। अब्रह्मचर्य, वह आपकी निकाली 'फाइल' है। लेकिन अभी तक उसके लिए अभिप्राय है और उस अभिप्राय से 'जैसा है वैसा' आरपार नहीं देख पाते। मुक्त आनंद का अनुभव नहीं हो पाता, क्योंकि अभिप्राय का आवरण बाधा डालता है। अभिप्राय तो ब्रह्मचर्य का ही रखना चाहिए। व्रत किसे कहते हैं? बरते उसे व्रत कहते हैं। ब्रह्मचर्य महाव्रत बरता किसे कहेंगे? कि जिसे अब्रह्मचर्य याद ही नहीं आए, उसे ब्रह्मचर्य महाव्रत बरत रहा है, ऐसा कहेंगे।