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समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य (उत्तरार्ध)
दादाश्री : वह आज्ञा नहीं कहलाती। वह तो एक प्रकार का लालच घुस गया है, उससे लालची हो जाता है फिर।
इस लड़के ने अपने दोष का प्रतिक्रमण किया था, बाद में मैंने इसे आज्ञा दी, उसके बाद इससे एक भी दोष नहीं होता। क्योंकि इसने तय किया है कि मुझे अब उस ओर दृष्टि ही नहीं करनी है, मुझे बिगड़ना ही नहीं है। मुझे विषय के बारे में सोचना ही नहीं हैं और मैंने उसे आज्ञा दी। अब उसका कुछ भी नहीं बिगड़ रहा है, अरे, निरंतर समाधि में रहता है ! आपकी नीयत खराब हो, तभी सबकुछ बिगड़ता है। इस एक बात में तो स्ट्रोंग रहना ही पड़ेगा न? इस बारे में पहले संतपुरुषों ने जहर खाए हैं। क्योंकि ज़हर खाना तो एक जन्म के लिए मारता है और इस विषय से तो अनंत जन्मों का मरण होता है!
जो अणहक्क के विषय भोगते हैं, वे तो दुराचार फैलाते हैं। दुराचार का विज्ञापन करते हैं। उसके खुद के हक़ का लोग भोग जाएँगे, इसका उसे विचार भी नहीं आता। जो अणहक्क का नहीं भोगते, उनके घर में से भी कोई उनका नहीं भोगता, यों सँभल जाता है, ऐसा कुदरत का नियम है। जो उस नियम को तोड़ दे, वह भान रहित, पूरी तरह से अभानता कही जाएगी। अपना यह विज्ञान निरंतर समाधि में रखे, ऐसा है। फिर वह भौतिक सुखों की इच्छा ही नहीं रखता न?
प्रश्नकर्ता : किसी में विषय-सुख की ग्रंथि होती है न?
दादाश्री : ऐसा कुछ नहीं होता। ग्रंथियाँ हों तो उनका छेदन किया जा सकता है।
प्रश्नकर्ता : बाकी आपका ज्ञान, आपका जो सुख है, वह सचमुच इन सबसे ऊँचा है, यह बात समझ में आती है।
दादाश्री : ऊँचा नहीं, यह ज्ञान तो ऐसा है कि वर्ल्ड में कभी ऐसा हुआ ही नहीं है। नये सिरे से यह उद्भव हुआ है।
प्रश्नकर्ता : हाँ, यह समझ में आता है कि बात सही है लेकिन वह वर्तन में नहीं आता।