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आलोचना से ही जोखिम टले व्रतभंग के
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अहंकार का कर्म भले ही बँधे, लेकिन अक्रम विज्ञान में इतना सँभालने जैसा है!
शरीर पर से चमड़ी निकाल दे और फिर वहाँ पीप हुआ हो और कोई आपसे कहे कि इसे चाट लो, वर्ना कल से मेरे यहाँ मत आना, तो आप क्या करोगे?
प्रश्नकर्ता : 'जाओ, नहीं आऊँगा', ऐसे कहूँगा।
दादाश्री : 'नहीं आऊँगा' ऐसा ही कहोगे न? देखो, अब एक इतनी छोटी सी बात के लिए पूरी तरह से छोड़ देता है, चाटता नहीं है न! आपको क्या लगता है? आपसे कोई कहे कि पीप चाट जाओ, वर्ना कल से मेरे यहाँ मत आना, तो?
प्रश्नकर्ता : आज अभी से ही नहीं आऊँगा, कल से क्यों?
दादाश्री : देखो, इतनी छोटी सी बात है न, तो आपको बात को पकड़ना नहीं आना चाहिए? कैसा आश्चर्य है न! सिर्फ पीप पड़ जाए, उसमें अहंकार करता है कि, 'अब नहीं आऊँगा', और जिसमें हज़ारों जोखिम हैं ऐसे विषय में अहंकार कर न, कि 'तू मुझ से ऐसा करवाती है, तो मैं तेरे पास आऊँगा ही नहीं!' |
प्रश्नकर्ता : कर्म बाँधकर आया है, इसलिए भोगना ही पड़ेगा न? बाद में उसकी सत्ता में नहीं है न?
दादाश्री : भोगना पड़ता है, वह बात अलग है, और भोगते हैं वह बात अलग है। ये सभी तो भोग रहे हैं। भोगना पड़े ऐसा तो कोई एकाध ही व्यक्ति होता है। जिसे भोगना पड़ता है, ऐसा व्यक्ति तो पूरे दिन उपाधि (बाहर से आनेवाला दु:ख) में ही रहा करता है। जबकि यहाँ तो भोगने के बाद मुँह पर संतोष भी दिखता है। इसे मनुष्य ही कैसे कहें फिर?
अपने कुछ महात्मा ऐसे हैं कि जिन्होंने अहंकार करके भी विषय छोड़ दिया है। अहंकार किया कि जो होना हो सो हो, लेकिन विषय बंद। अब विषय चाहिए ही नहीं। यदि विषय आए तो मर जाऊँगा, ऐसे अहंकार