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विषय भूख की भयानकता
असंतोष की भूख, अब कब छूटेगी ? किसी पुरुष को स्त्रियों के सामने नहीं देखते रहना चाहिए और किसी स्त्री को पुरुष के सामने नहीं देखते रहना चाहिए। जो खुद का है, उसी की छूट है। हलवाई की दुकान में लोग देखते नहीं रहते। क्योंकि वे जानते है कि हमारी नहीं है। लेकिन ये पुरुष, स्त्रियों को देखते रहते हैं और स्त्रियाँ, पुरुषों को देखती रहती हैं। अरे! इसमें देखने का है क्या? ये तो तरबूजे जा रहे हैं सभी। इनमें क्या देखना है?
ऐसा कोई नहीं बताता! 'चलने दो', सब ऐसा ही कहते रहते हैं न! लेकिन यह तो भयंकर जोखिम है। खुद के हक का भोगो। खुद की परिणीता स्त्री हो, उस स्त्री के माता-पिता शादी करवाते हैं और गाँववाले भी शामिल होते हैं, यानी सभी लोग 'एक्सेप्ट' करते हैं न? उस हक में एतराज़ नहीं है, लेकिन बाकी कुछ तो देखना ही नहीं चाहिए। अन्यत्र कहींभी दृष्टि नहीं बिगाड़नी चाहिए। लेकिन ऐसा उपदेश किसी ने नहीं दिया। ऐसी ही पोल चलने दी, इसलिए गाड़ी उल्टी चली।
यह तो जगत् है, कहाँ-कहाँ दृष्टि नहीं बिगड़ेगी? क्योंकि तरह-तरह के आमों का संग्रहालय है यह तो। हाफूस के आम, रत्नागिरि के, आदि तरह-तरह के आम तो फिर आदमी बेचारा क्या करे? इतना 'कंट्रोल' कैसे हो सकेगा? यह ज्ञान लिया हो तो 'कंट्रोल' रख सकता है। बाकी, अणहक्क का भोगने का विचार आए, तभी से जानवर गति में जाता है। लोगों के मन में ऐसा होता है कि 'मेरा क्या हो सकता है?' इसलिए लोग भय नहीं