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समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य (उत्तरार्ध)
और इतनी बड़ी-बड़ी मूछे रखो, गलमुच्छे रखो तब भी दुनिया एतराज़ नहीं करती। दुनिया तो, जहाँ गड़बड़ है, वहीं पर एतराज़ करती है। दुनिया को अन्य सभी चीज़ों में कोई एतराज़ है ही नहीं। और इस अणहक्क के संबंध में तो बहत ही जोखिमदारी है, भयंकर अधोगति में फेंक देता है! जगत् तो आईने जैसा है, वह हमें दिखाता है, अपना रूप दिखाता है। जोजो टोकनेवाले हैं न, वे अपना ही आईना हैं।
वास्तव में तो, विषय में सुख है ही नहीं। जो सुख माना है न, वह निरी रोंग बिलीफ की भी रोंग बिलीफ है। जलेबी में सुख लगता है। अब किसी को जलेबी नहीं भाती होगी, लेकिन उसे श्रीखंड तो भाता होगा? यानी ये चीजें भी सुखदायी लगती हैं। जबकि विषय तो दाद को खुजलाने
जैसा है। वह कोई चीज़ नहीं है फिर भी उसमें सुख मिलता है न? अतः विषय रोंग बिलीफ की भी रोंग बिलीफ है। वह भी फिर जगत् में चल पड़ा तो चला फिर। सही समझ ही नहीं है न!
मैं इन सभी को इसीलिए ब्रह्मचर्य के बारे में समझाता हूँ। क्योंकि चारित्र की बुनियाद पर मोक्षमार्ग कायम है। आपको यदि खाना-पीना है, तो उसमें हर्ज नहीं है। सिर्फ शराब या मांसाहार नहीं करना चाहिए। बाकी सबकुछ, पकौड़े-जलेबी खाने हों तो खाना, उसका हल ला दूंगा। अब इतनी छूट देने के बावजूद भी यदि आप अच्छी तरह से आज्ञा में नहीं रह पाओ तो क्या हो सकता है? कृपालुदेव ने तो यहाँ तक कहा है कि तेरी पसंद की थाली दूसरों को दे देना। अपने यहाँ तो क्या करने को कहा है कि 'तुझे जिससे शांति मिलती है, वैसा तू कर। तू अपनी पसंद की थाली दूसरों को मत देना, आराम से खाना।' आपको तो चारित्र की बुनियाद मज़बूत रखनी है। मोक्ष में जाने के लिए वही एक मूल चीज़ है।
अपने यहाँ पर ज्ञान लेने के बाद क्रोध-मान-माया-लोभ नहीं होते हैं इसलिए यह व्यवहार चरित्र बहुत ऊँचा कहलाता है। जो भी क्रोध-मानमाया-लोभ होते हैं, वे निकाली हैं, वे निर्जीव हैं। अत: वास्तव में वे क्रोधमान-माया-लोभ नहीं हैं। इसलिए यह व्यवहार चरित्र बहुत ऊँचा कहलाता है, लेकिन ब्रह्मचर्य ठीक से नहीं सँभालने के कारण सारा चरित्र कच्चा पड़