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आलोचना से ही जोखिम टले व्रतभंग के
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उसी ओर मुड़ गया। जैसे ही शरीर में फोर्स (शक्ति) आता है, ताक़त आती है तो मन फिर से विषय की ओर दौड़ता है। इसके बावजूद भी यह शरीर अलग चीज़ है और हम अलग हैं।
प्रश्नकर्ता : भाव करनेवाले हम हैं न? शरीर नहीं है न? निश्चय करनेवाला विभाग खुद का है न? तब फिर विषय की ओर क्यों चले जाते
दादाश्री : अभी किसी व्यक्ति को बहुत विषय-विकारी विचार आते हों और यदि वह तीन महीनों तक बीमार रहे तो उसके वे विचार बिल्कुल खत्म हो जाएँगे। बल्कि ऐसा कहेगा, 'अब यह कभी भी नहीं चाहिए।' अत: यह सब शरीर पर ही निर्भर करता है!
प्रश्नकर्ता : आपके ज्ञान से पहले मनोबल डेवेलप ही नहीं हुआ था न! इस समय अब मनोबल उत्पन्न होता जा रहा है।
दादाश्री : वह उत्पन्न होगा, लेकिन मनोबल इस बॉडी पर निर्भर करता है, 'डिपेन्डन्स अपॉन बॉडी!' मनुष्य का मनोबल पूर्ण रूप से स्वतंत्र नहीं है। पूर्ण रूप से (पूर्णतः) स्वतंत्र मनोबल अलग चीज़ है। बिल्कुल 'वीक बॉडी' होने पर भी मनोबल तो वही का वही रहता है।
प्रश्नकर्ता : लेकिन ऐसा मनोबल डेवलप होता है न?
दादाश्री : नहीं होता। यह आपका मनोबल तो बॉडी के अधीन हैं। अंदर जो शारीरिक बीमारी थी, उसकी वजह से मन के सारे विचारों को ब्रेक लगा हुआ था और इसलिए उन दिनों इच्छा के अनुसार कंट्रोल रह सकता था और इसीलिए फिर तुझे सोचने का अवकाश मिला कि विषय क्या है? उन दिनों, विषय इतनी बुरी चीज़ है, वह सब यों पिक्चर की तरह हाजिर रहने लगा और उसी अनुसार हुआ। लेकिन फिर शरीर ने पलटा खाया, कि फिर विचार पलट गए! विषय से संबंधित ढीलापन आने का कारण कई बार शारीरिक कमजोरी होती है, बाद में इलाज हो जाने पर विषय ज़ोर मारता है। इसलिए तेरा पलटा हुआ देखकर मैं समझ गया कि यह क्यों पलटा हैं! मैं जानता हूँ कि यह इलाज किया और इलाज करने