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समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य (उत्तरार्ध)
तो कहीं ऐसे पाशवी कर्म होते होंगे? कैसे ऋषि-मुनियों का देश! पूरी जिंदगी में एक संतान देते थे, वह भी भिक्षा के रूप में, पत्नी भिक्षा माँगती
और वे देते थे। बस। उतनी ही, एक ही संतान ! देखो, उनकी दशा तो देखो! रात-दिन विषय के ही विचार आते रहते हैं! कैसे होंगे ऋषि-मनि? सयाने नहीं होंगे? उन्हें क्या विषय पसंद नहीं होगा? विषय तो जानवरों को भी पसंद नहीं है, इसलिए वे बेचारे, जब उनका समय आता है, उतने समय के लिए ही वे उत्तेजना अनुभव करते हैं और वह भी फिर कुदरत की प्रेरणा से, उनकी खुद की प्रेरणा होती ही नहीं!
विषय-विकार तो जानवरों में भी हैं। वह फिर भ्रांति नहीं है, वह नियम से है। उसका समय आए, तभी। बाकी, ये मनुष्य तो जानवर से भी गए बीते हैं। उनका तो रोज़ यही तूफान होता है। नीयत ही यही। अब विषय-विकार का मतलब क्या है ? जिस विषय से संतान पैदा नहीं होती, वह विषय संडास कहलाता है।
ब्रह्मचारी यानी मनुष्य के रूप में देवता ही प्रश्नकर्ता : विषय-विकार में से मुक्ति कैसे पाएँ ?
दादाश्री : आप मुक्ति पाना चाहो तो मैं कर दूंगा। लेकिन अन्य लोगों के लिए तो कुदरत तैयारी कर ही रही है। जो सुधारने से नहीं सुधरते, वे कैसे सुधरेंगे? वे हारकर सुधरेंगे। वह जर्जर बना देगा। कुदरत थोड़े समय में उन्हें ऐसा जर्जर बना देगी कि यहाँ मेरे समझाने से यदि सुधर गए तो ठीक है, वर्ना जर्जर बनानेवाले तो तैयार हैं ही पीछे।
इस ब्रह्मचर्य की कोई क़ीमत होगी न? अब्रह्मचर्य में क्या गुनाह है, यह लोगों के ध्यान में है ही नहीं और मैं कहीं साधु बनने को नहीं कह रहा हूँ। संसारी रहकर ब्रह्मचर्य का पालन करो। और संसारी रहकर जो ब्रह्मचर्य पालन नहीं करते, वह पाशवता ही है। सरेआम, खुली पाशवता है। ओपन पाशवता!
यह तो केवल रोंग मान्यता के कारण ही यह सब घर कर गया है। बाकी, एक-दो बच्चों की आशा रखने जितना ही हो तो पर्याप्त है यह।