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समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य (उत्तरार्ध)
हैं ? एकांत शैय्यासन के। शैय्या और आसन एकांत (अलग ही) होते
हैं।
जब तक जिस बारे में अंध है, तब तक उस बारे में दृष्टि खिलती ही नहीं, बल्कि और ज़्यादा अंध होता जाता है। उससे दूर रहने के बाद उससे छूट सकता है। फिर उसकी दृष्टि खिलती जाएगी, उसके बाद समझ में आता जाएगा।
एकांत शैय्यासन प्रश्नकर्ता : आपने एकांत शैय्यासन के बारे में कहा है, लेकिन उसमें भी एकांत में तो अंदर से गाँठे फूटेंगी न?
दादाश्री : एकांत शैय्यासन यानी क्या? शैय्या में कोई साथ में नहीं और आसन में भी कोई साथ में नहीं। संयोगी 'फाइलों' का किसी भी तरह का स्पर्श नहीं। शास्त्रकार तो यहाँ तक मानते थे कि 'जिस आसन पर यह परजाति बैठी हो, तू उस आसन पर बैठेगा तो तुझे उसका स्पर्श होगा, विचार आएँगे।' इस तरह की मान्यताएँ थीं। आज उन सूक्ष्म मान्यताओं की बात करें तो उसका कोई अर्थ नहीं है। आजकल तो ऐसा चलता ही रहता है न! यह तो संपूर्ण मोह का काल है ! यह मोहनीय काल नहीं है, महामोहनीय काल है!
प्रश्नकर्ता : उसके आसन पर बैठने से जो असर होता है, उससे ज़्यादा असर तो जो भीतर होता है उससे है न? बाहर का तो बहुत सारा स्थूल में गया न? उसकी तुलना में जो अंदर का फूटता है तो वह ज़रा ज़्यादा ज़ोर मारता है न?
दादाश्री : अंदर का फूटे या बाहर से फूटे लेकिन सबकुछ ज्ञायक स्वभाव से बाहर है और बाकी का सबकुछ ज्ञेय है। फिर हमें क्या स्पर्श किया?
प्रश्नकर्ता : ज्ञान लेने के बाद निराकुलता बरतती है, फिर भी विषय में आसक्ति क्यों रह जाती है?