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ब्रह्मचर्य का मूल्य, स्पष्टवेदन
आत्मसुख
इच्छा तीव्र है या नरम, उस पर जलन आधारित है । बहुत तीव्र इच्छा हो तो बहुत जलन पैदा होती है। यह विषय की इच्छा तो बहुत जलन पैदा करती है, ज़बरदस्त जलन पैदा करती है । इसलिए ऐसा कहा है न कि 'विषय में पड़ना ही नहीं, वह बहुत जलन देता है । '
प्रश्नकर्ता : ऐसा तो किसी ने बताया ही नहीं था न !
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दादाश्री : लोगों को सब घोटालेवाला चाहिए, इसलिए कोई कहेगा ही नहीं न! लोग खुद गुनहगार हैं इसलिए वे नहीं बोलते न ! जो गुनहगार नहीं हैं, वे ही बोलेंगे। क्योंकि एक ही बार का विषय कितने ही दिनों तक इन्सान की भ्रांति छूटने नहीं देता । भ्रांति यानी डिसीज़न नहीं आ पाता कि यह आत्मा का सुख है या भौतिक सुख है, इसका भान नहीं होने देता ! इस ज्ञान के साथ यदि ब्रह्मचर्यव्रत ले ले, तो फिर माथापच्ची ही नहीं न ! परेशानी में भी सुख बरतता रहेगा ! ये लोग ऐसा क्यों भूल जाते होंगे कि माँस की पुतली है? ऐसा है न मूर्छावश वह उसमें से जैसे-जैसे सुख लेता है, वैसे-वैसे उस पर मूर्छा छाती जाती है। यदि छ:- बारह महीनों तक उसमें से सुख नहीं ले, तब फिर उसकी मूर्छा जाएगी। तब फिर उन्हें रेशमी चद्दर में लिपटा हुआ माँस ही दिखाई देगा !
तभी मिले आत्मा का सुख
चालीस रुपये किलो की चाय हो, लेकिन उसमें स्वाद नहीं आए, तो उसका क्या कारण होगा ? क्योंकि एक ओर वह चाय पीता है और दूसरी ओर अनार खाता है, अगरूद खाता है, फिर क्या चाय का स्वाद मालूम पड़ेगा? तो चाय का टेस्ट कब मालूम पड़ेगा ? कि जब बाकी का सब खाना बंद कर दे और मुँह - मुँह साफ करने के बाद चाय पीए तो समझ में आएगा कि यह चालीस रुपये किलो की चाय बहुत स्वादिष्ट है ! तब चाय का अनुभव होगा ! वैसे ही इन सभी चीज़ों के बीच आत्मा का अनुभव कैसे मालूम पड़ेगा ? भान ही नहीं रहता न ? मनुष्य की इतनी जागृति होती नहीं है न! इसलिए ऐसा प्रयोग करना चाहिए। छः-बारह महीनों का ब्रह्मचर्यव्रत लिया हो तो फिर यह अनुभव समझ में आएगा !