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समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य (उत्तरार्ध)
विषय से चला जाए ज्ञान और ध्यान यह विषय ऐसी चीज़ है कि एक ही दिन का विषय तीन दिनों तक किसी भी प्रकार की एकाग्रता नहीं होने देता। एकाग्रता डाँवाडोल होती रहती है। यदि कोई महीनेभर विषय का सेवन नहीं करे तो उसकी एकाग्रता डाँवाडोल नहीं होगी। आपको आत्मा का सुख बरतता है, उसके आधार पर आप यहाँ आते रहते हो। आपकी दृष्टि यहीं पर होती है, फिर भी यह सुख आत्मा का है या विषय का है, आपको वह भेद मालूम नहीं पड़ता। किसी को अन्जाने में पहले जलेबी खिलाएँ और बाद में चाय पिलाएँ तो? उसी प्रकार जलेबी की वजह से चाय फीकी लगती है, ऐसा भेद इसमें मालूम नहीं पड़ता!
नहीं बुझती वह प्यास कभी देखो, सुख कहीं भी नहीं मिलता। इतने पैसे हैं, फिर भी पैसों में सुख नहीं मिलता। पत्नी है पर उससे भी सुख नहीं मिलता! इसलिए फिर बोतल मँगवाकर, ज़रा पीकर सो जाता है! सुख तो मनुष्य ने देखा ही नहीं है न! जीवमात्र क्या खोज रहा है? सुख ही खोज रहा है। क्योंकि उसका स्वभाव ही सुख का है। चित्तवृत्ति सुख ही खोजती है कि इसमें सुख मिलेगा, जलेबी में सुख मिलेगा, इत्र में सुख मिलेगा, सिनेमा में सुख मिलेगा। उसे चखने के बाद खुद तय करता है कि इसमें कुछ भी सुख नहीं है। फिर खुद उसे छोड़ता जाता है और आगे नया खोजता ही जाता है, लेकिन उसे तृप्ति नहीं होती। संतोष होता है लेकिन तृप्ति नहीं होती। संतोष उसे कहा जाता है कि इच्छा पूरी हो जाए, तब संतोष होता है। खाने की इच्छा हुई फिर हम खाना खाएँ, तब संतोष होता है लेकिन तृप्ति नहीं होती। तृप्ति यानी फिर से उस चीज़ की इच्छा ही नहीं हो।
प्रश्नकर्ता : हमने किसी चीज़ की इच्छा की हो और हमें वह चीज़ नहीं मिले तब अंदर जलन शुरू होती है न?
दादाश्री : इच्छ, वही अग्नि है। इच्छा हुई यानी दीयासलाई जलाकर सुलगाना। फिर जब तक वह नहीं बुझती, तब तक जलन होती रहती है।