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ब्रह्मचर्य का मूल्य, स्पष्टवेदन - आत्मसुख
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दादाश्री : भीतर ऐसा माल भरा है, इसलिए अभी तक उसके मन में श्रद्धा है कि इसमें सुख है।
बदलो बिलीफ विषय से संबंधित प्रश्नकर्ता : यानी ज्ञान के बाद सिर्फ 'बिलीफ' ही बदलनी है?
दादाश्री : हाँ, लेकिन ऐसा है न 'राइट (सही) श्रद्धा पूरी बैठ गई,' ऐसा कब कहा जाएगा कि जब सारी रोंग (गलत) श्रद्धा खत्म हो जाए तब! अब मूल रोंग बिलीफ हमने खत्म कर दी लेकिन इस विषय में तो हम थोडी-बहत रोंग श्रद्धा फ्रैक्चर कर देते हैं! बाकी क्या यह पूरा फ्रैक्चर करने हम फालतू बैठे हैं ? __यानी विषय में से रस निर्मूल कब होगा कि जब पहले उसे खुद को ऐसा लगे कि 'यह मिर्च खा रहा हूँ, इससे मुझे तकलीफ होती है, ऐसे नुकसान करती है,' उसे ऐसा समझ में आना चाहिए। जिसे मिर्च का शौक़ हो, उसे जब गुण-अवगुण समझ में आ जाएँ और विश्वास हो जाए कि यह मुझे नुकसान ही करेगी तो वह शौक़ जाएगा। अब यदि हमें ऐसा यथार्थ रूप से समझ में आ जाए कि 'शुद्धात्मा में ही सुख है,' तो विषय में सुख रहेगा ही नहीं। फिर भी यदि विषय में सुख महसूस होता है वह पहले का रीएक्शन है!
प्रश्नकर्ता : विषय में सुख है, वह जो बिलीफ पड़ी है, वह किस तरह निकलेगी?
दादाश्री : यह चाय मज़ेदार मीठी लगती है, वह अपना रोज़ का अनुभव है, लेकिन जलेबी खाने के बाद कैसी लगेगी?
प्रश्नकर्ता : फीकी लगेगी।
दादाश्री : तब उस दिन पता चल जाता है, बिलीफ बैठ जाती है कि जलेबी खाई हो तो चाय फीकी लगती है। इसी तरह जब आत्मा का सुख रहता है, तब अन्य सब फीका लगता है।