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समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य (उत्तरार्ध)
वेद के कारण है। सारा दिन जलन, जलन... यह सारी जलन वेद के कारण है। वर्ना मनुष्य में जलन नहीं होती। जिसने वेद जीता उसका काम हो गया। इस जगत् में जीतने जैसा क्या है? तब यह, कि वेद। क्या वेद को तू समझ गया है? वे तीन वेद कौन-से हैं? पुरुष वेद, स्त्री वेद और नपुंसक वेद। विषय सुख चखेगा, तब तक आत्मसुख कैसे चख पाएगा?
आत्मा का सच्चा सुख तो ये ब्रह्मचारी ही चख सकते हैं। जो स्त्रीरहित पुरुष हैं, वे ही चख सकते हैं। फिर उन्हें जल्दी ‘स्टडी' (अभ्यास) हो जाती है। क्योंकि जो शादीशुदा हैं उनके पास, यह सच्चा सुख है या वह, उन दोनों की तुलनात्मक दृष्टि नहीं है। फिर भी चलने दो न गाड़ी! जो शादीशुदा हैं उनसे हम ऐसा थोड़े ही कह सकते कि तू कुँवारा हो जा! इसलिए हमने उन्हें 'समभाव से निकाल' करने को कहा है। लेकिन बात को समझो, ऐसा भी कहते हैं। विषय में तो मरने जैसा दःख होता है। विषय हमेशा परिणाम में कड़वा है। शुरूआत में उसे ऐसा लगता है कि यह विषय सुखदायी है, लेकिन परिणाम में तो कड़वा ही है। उसका विपाक भी कड़वा है। इसके बाद थोड़ीदेर के लिए तो इन्सान मुर्दे जैसा हो जाता है लेकिन उसके सिवा कोई चारा भी नहीं है न? वह भी अनिवार्य है। अब आप किस तरफ जाओगे? ऐसा करने जाओगे तो भी अनिवार्य है और वैसा करने जाओगे तो भी अनिवार्य है। इसलिए मेरा यह कहना है कि अनिवार्य को अनिवार्य जानकर उसकी इच्छा छोड़ दो। 'उसमें मेरी मर्जी है', वह छोड़ दो।
छ:-बारह महीने विषयसुख छोड़ दे तो समझ में आएगा कि आत्मा का सुख कहाँ से आता है ! यह तो विषय है, इसलिए तब तक उसे, इनमें से सच्चा सुख कौन सा है, इसका उसे पता नहीं चलता। इसलिए हम कहते हैं न कि विषय में से ज़रा निकलकर तो देखो तो सच्चे सुख का पता चलेगा! विषय में सुख है ही नहीं ! विषय में तो कभी सुख होता होगा? दाद हो जाए और इस तरह रगड़ता रहे, दाद को खुजलाता रहे तो बहुत मीठा लगता है, लेकिन बाद में उसे जलन होती है। यह उसके जैसा है!