________________
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य (उत्तरार्ध)
देता कि मैं कुत्ते जैसा हूँ या गधे जैसा हूँ? ऐसी शर्म नहीं आती खुद को ?
यों तो पर्सनालिटीवाला अफसर होता है, जिसके आगे बाहर सभी ता-ता-थई-थई करते हैं, लेकिन विषय भोगते समय तो वह जानवर जैसा ही बन जाता है न! अन्य किसी चीज़ में जानवर नहीं बनता, शराब में भी वह जानवर नहीं बनता ।
११८
फिर भी स्त्रियों का तिरस्कार नहीं करना है, स्त्री का दोष नहीं है। यह तो आपकी वासनाओं का दोष है । स्त्री का तिरस्कार नहीं करना चाहिए। स्त्रियाँ तो देवियाँ हैं । विषय के प्रति तिरस्कार नहीं है, वासना पर तिरस्कार है और यह वासना फिर देखा-देखी से है !
प्रश्नकर्ता : पशु तो भोगप्रधान हैं, इसलिए करते हैं, लेकिन मनुष्य तो विचारवान हैं, फिर भी ऐसी स्थिति है !
दादाश्री : लेकिन पशु जैसे भी गुण नहीं रहे। पशु तो नियम में होते हैं। जब कुदरती संयोग आ मिलते हैं, तब पशु में पाशवता उत्पन्न होती है। लेकिन इन मनुष्यों में तो नित्य पाशवता है । मनुष्य में मनुष्यत्व रहा ही कहाँ है? और पशुओं में छल-कपट कुछ भी नहीं होता न, यह तो निरंतर छल-कपट का ही शिकार होना, निरंतर छल-कपट ।
वे स्त्री- -पुरुष के जो भोग थे, वह सत्युग - द्वापर में कुछ, थोड़ा काल त्रेता का भी, उसके बाद खत्म हो गया, 'सिन्सियरिटी गॉन' ।
प्रश्नकर्ता : तो यह काल का प्रभाव है ?
दादाश्री : काल का प्रभाव ।
प्रश्नकर्ता : तो फिर मनुष्य उसमें क्या कर सकता है ?
दादाश्री : मनुष्य क्या कर सकता है, मतलब ? मनुष्य को समझना
चाहिए।
प्रश्नकर्ता : ऐसी समझदारी की दृष्टि खोलनेवाला कोई चाहिए न ? दादाश्री : हाँ, चाहिए ।