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समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य (उत्तरार्ध)
ज्ञानीपुरुषों ने पूर्व में भावना नहीं की हो, फिर भी अब्रह्मचर्य के सागर में वे खुद ब्रह्मचर्य रख सकते हैं । वह जागृति कहलाती है। अग्नि में हाथ डालना है और जलना नहीं है, ज्ञानीपुरुष का ब्रह्मचर्य उस जैसा कहलाता है । इन त्यागियों का ब्रह्मचर्य, वह तो भावना का फल है । वास्तव में तो भगवान ने यही कहा है कि सबकुछ भावनाओं का ही फल है । लेकिन आख़िर में जागृति की ज़रूरत तो पड़ेगी ! जागृत हुए बगैर नहीं चलेगा । खुद ने भोगा या भोग लिया गया
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जहाँ कोई भी ऊपरी (बॉस, वरीष्ठ ) नहीं है, जहाँ कोई भी अन्डरहैन्ड नहीं है, वही मोक्ष कहलाता है । जहाँ किसी भी प्रकार का बुरा इफेक्ट नहीं है, परमानंद, निरंतर परमानंद, सनातन सुख में रहना, वही मोक्ष कहलाता है। इसे तो सुख कह ही नहीं सकते । यदि कोई शराबी आदमी ऐसा कहे कि मैं पूरे हिन्दुस्तान का राजा हूँ, तो हम नहीं समझ जाएँगे कि यह तो शराब के नशे में बोल रहा है ? उसी प्रकार इस भ्रांति की वजह से उसे इसमें सुख महसूस होता है । विषय में कहीं सुख होता होगा ? सुख तो भीतर है, लेकिन यह तो बाहर दूसरों में आरोप करते हैं इसलिए वहाँ पर सुख महसूस होता है । भ्रांतिरस से यह सब खड़ा हो गया है । भ्रांतिरस यानी क्या कि कुत्ता जिस तरह हड्डी चूसता है, वह आपने देखा है ? हड्डी पर जो थोड़ा-बहुत माँस लगा हुआ हो वह तो मानो मिल गया, लेकिन अब उसके बाद भी क्यों चूस रहा है ? हड्डी तो लोहे की तरह मज़बूत होती है फिर खूब दबाए न तब क्या होता है, कि उसके मसूड़े दबते हैं और फिर उनमें से खून निकलता है। कुत्ता समझता है वह खून हड्डी में से निकल रहा है, इसलिए वापस खूब चबा-चबाकर हड्डी चूसता है । अरे ! तू तेरा ही खून चूस रहा है । यह संसार भी इसी तरह चल रहा है। इसी तरह ये लोग भी हड्डियाँ ही चूस रहे हैं और खुद का ही खून चख रहे हैं।
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बताओ, अब कितनी मुसीबत है ! उसी तरह पूरा जगत् विषय में सुख खोज रहा है । कुत्ते की तरह विषय में से सुख खोज रहा है, फिर कैसे सुख प्राप्त हो ? सच्ची चीज़ होगी तो उसमें से सुख मिलेगा। यह