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समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य (उत्तरार्ध)
यही धंधा लेकर बैठ गया था लेकिन अब जलन नहीं रही। अब ज़रा सीधा चल न! जब तक किसी को जलन रहे, तब तक मैं नहीं डाँटता उसे। मैं समझता हूँ कि जलनवाला इन्सान क्या नहीं करेगा? अब मैंने आपको अखंड आनंदवाला बना दिया है, अब क्यों यह पीते रहते हो? बिना बुख़ार के दवाई पीते हो? कोई बिना बुख़ार के दवाई पीता है भला? ज़रूरत ही नहीं है शरीर को। यों ही आनंद में है! समझने जैसी बात है!
और वह जो है, वह शरीर के लिए नुकसानदेह चीज़ है। यह आप जो खाते-पीते हो उसका एक्स्ट्रैक्ट निकलते-निकलते जो वीर्य बनता है, वह पूरा सार है। इसलिए उसका उपयोग इकोनोमिकली करना चाहिए। यों ही फ़िजूल खर्च नहीं करना है। हाँ! यानी आपको तो चंदूभाई से कहना है कि, 'भाई, ऐसा नहीं चलेगा, फ़िजूल खर्च मत करना, आप तो विषयी हो ही नहीं। आपका लेना-देना नहीं है लेकिन आपको चंदूभाई से कहना चाहिए। वर्ना फिर चंदूभाई बीमार हो गए तो आपको ही मुसीबत होगी न? अतः यदि सावधान रहो तो उसमें गलत क्या है? वर्ना यदि शरीर निर्वीर्य हो जाएगा, तो यह कहेगा 'अरे! गया, वह गया, यह गया।' घन चक्कर! तो क्यों पहले दादाजी का कहा नहीं माना और अब गया-गया कर रहा है? पैंतीस साल की उम्र में तो एक व्यक्ति को पक्षाघात हो गया था, वे बहुत आसक्तिवाले थे। यों तो अच्छी तरह धर्म का पालन करते थे। फिर मैंने उनसे कहा, 'आप आसक्ति मंद नहीं कर रहे थे, लेकिन अब तो मंद करनी पड़ेगी न!' तब कहने लगे, 'मंद क्या? अब तो पूरी ही गई न। अब कहाँ रही आसक्ति?' तब मैंने कहा, 'पहले से समझ गए होते तो यह झंझट नहीं हुआ होता न!' इस तरह जब जेल में बंद हो जाते हो, तब सीधे होते हो, तो फिर मुक्त रहने में क्या हर्ज है?' लेकिन मुक्ति में नहीं रहता। नहीं? जेल में जाएँगे तब रहेंगे सीधे!
इसलिए फिर यह अक्रम मार्ग निकला है कि 'भाई नहीं, ऐसा-वैसा नहीं, दोनों को बुख़ार आए तब दवाई पीना। बुख़ार में सारी रात हुड... हुड... करते बैठे रहो, उसके बजाय पी लेना न! ऐसा अक्रमविज्ञान निकला है।
इसीलिए आख़िर में मैंने क्या कहा? ये लोग कच्चे हैं इसलिए मुझे