________________
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य (उत्तरार्ध)
कहेंगे पैसे पानी में गए ! ऐसा है यह जगत् ! यह तो सब आँख का चमकारा हैं! आँखें देखती हैं और चित्त चिपक जाता है। इसमें आँख का क्या गुनाह ? गुनाह किस का है?
प्रश्नकर्ता : मन का?
दादाश्री : मन का भी क्या गुनाह ? गुनाह अपना है कि हम कच्चे पड़े, तभी मन चढ़ बैठा न! गुनाह अपना ही। पहले तो ऐसा भी सोचते थे कि यहाँ हमें नहीं देखना चाहिए, यह तो बहन है। यह तो मामा की बेटी है, फलाँ है। अभी तो देखने में कुछ बाकी ही नहीं रखते न? यह तो सब पाशवता कहलाएगी। थोड़ा-बहुत विवेक जैसा भी कुछ नहीं होता?
दृष्टि का ज़रा-भी विच्छेद नहीं होना चाहिए। किसी के प्रति अपनी दृष्टि खिंचे तो पूरे दिन प्रतिक्रमण करना पड़ेगा। तूने कितना बड़ा बीज बोया होगा कि तेरी दृष्टि खिंचती रहती है ? एक संत ने तो, उनकी दृष्टि खिंचती थी, इसलिए उन्होंने आँखों में मिर्च डाल दी, लेकिन हम ऐसा करने को नहीं कहते। हम ऐसा कहते हैं कि मिर्च मत डालना। हमें तो प्रतिक्रमण करते रहना है। उन्होंने मिर्च क्यों डाली होगी? कि आँख का दोष है इसलिए मिर्च डाली। आँखों को दंड दो, ऐसा कहते हैं। अरे! दोष तेरा है। 'आँखों को दंड दो', ऐसा क्यों कहता है ? भैंस की भूल पर चरवाहे को मारता
है।
भैंस की भूल पर चरवाहे को मार भगवान ने कहा है कि एक भूल मत करना। जिसका दोष हो, उसे दंड देना! भैंस की गलती और चरवाहे की गलती, दोनों की गलती देखना
और बाद में दंड देना! लेकिन इस जगत् के लोग तो भैंस की भूल पर चरवाहे को मारते हैं! 'यह गुनाह किस का है?' उसकी जांच तो करनी ही चाहिए न? यों तो कहता है कि, 'मुझे ब्रह्मचर्य पालन करना है', और फिर कहता है कि 'मेरी इच्छा नहीं है, फिर भी देह खिंच रही है।' तो तूने उपाय क्या किया? तब कहता है, 'देह में खाना कम डाला है।' अरे! भैंस की भूल के लिए चरवाहे को क्यों मार रहा है? लेकिन यह बात