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समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य (उत्तरार्ध)
इतनी दुर्गंध है, ओहोहो! इतनी दुर्गंध है! कितनी दुर्गंध होगी? अपार दुर्गंध है! कृपालुदेव ने क्या लिखा है ? तूने पढ़ा है? उन्होंने उसका ऐसा वर्णन किया है कि हमें घिन आ जाए।
प्रश्नकर्ता : फिर भी इस इन्द्रिय को उसमें स्वाद आ जाता है न।
दादाश्री : कोई स्वाद नहीं आता। वह स्वाद तो दाद हो गया हो और खुजलाए, ऐसा स्वाद आता है! उसे खुजला रहा हो तब हम कहें कि 'अब बंद करो।' फिर भी उसका ऐसा स्वाद आता है कि वह छोड़ता नहीं है। फिर जलन होती है, तब फिर बुरा लगता है! जलन तो होगी ही न? कृपालुदेव ने इस सुख की तुलना दाद खुजलाने पर होनेवाले सुख के साथ की है। मनुष्य जब विषय करे, उस घड़ी उसका फोटो खींचें तो कैसा दिखेगा?
प्रश्नकर्ता : गधे जैसा।
दादाश्री : ऐसा? क्या बात कर रहा है ? ऐसा इन मनुष्यों को शोभा देता है क्या?
विषय का विवरण, राजचंद्रजी' की दृष्टि से...
पहले के ऋषि-मुनि एक पुत्रदान के लिए ही विषय करते थे, फिर जिंदगीभर नहीं।
प्रश्नकर्ता : जिंदगीभर नहीं?
दादाश्री : नहीं, शादी किस लिए करते हैं? परस्पर आमने-सामने संसारकाल पूरा करने के लिए, कि 'भई, तुझे इतना काम करना है और मुझे इतना काम करना है।' और स्त्री को भय नहीं लगे और पुरुष को ज़रा हूँफ (अवलंबन, सलामती) रहे।
प्रश्नकर्ता : तो ऋषि-मुनि पूरी जिंदगी क्या करते थे?
दादाश्री : यों तो साथ-साथ रहते और खाना-पीना सब होता था। लेकिन साधना ही किया करते थे। भगवान की भक्ति करते। आत्मा के