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समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य (उत्तरार्ध)
दादाश्री : योग यानी आत्मयोग की । खुद 'शुद्धात्मा है' उसकी स्मृति रखना और “यह है, तो मैं कैसा सुख अनुभव कर रहा हूँ" यह भूल जाना। उसमें शुद्धात्मा देखकर इस सुख को भूल जाना। आत्मा देखोगे तो कोई हर्ज नहीं है। जैसे मित्र के साथ रहते हैं, वैसे ही स्त्री के साथ
रहना ।
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"स्त्री के संबंध में कोई भी राग-द्वेष रखने की मेरी अंश मात्र भी इच्छा नहीं है। लेकिन पूर्वोपार्जन से, इच्छा के प्रवर्तन में अटका हुआ हूँ ।"
लेकिन यह सब यों ही हो पाए, ऐसा नहीं है । बहुत-बहुत सोचे, तब जाकर यह छूटेगा। लेकिन ऐसा बहुत सोचने से भी थक जाएँ, ऐसा है। अतः यदि किसी ऐसे व्यक्ति से मिलना हो जाए कि हम उनके साथ रहें तो हम भी उनके जैसे हो जाएँ, बिना कुछ किए उनके जैसे हो जाएँ, उनका प्रभाव पड़ता रहे अपने पर और हम उसी रूप होते जाएँ। यानी वस्तुस्थिति में अन्य कोई उपाय नहीं है । हमें पहले सारी उलझनें दिखाई दी थीं! पूरा स्थूल भाग सोचकर और पूरा सूक्ष्म भाग दर्शन से देख लिया था! इसीलिए तो जगत् की सारी उलझनें सुलझा देते हैं न !
बुद्धि से भी छूट सकता है विषय
प्रश्नकर्ता : शास्त्रों में भी स्त्री के रूप का बहुत वर्णन किया गया
है।
दादाश्री : जिन शास्त्रों में स्त्री के रूप का वर्णन है, वे शास्त्र अलग तरह के हैं। मोक्षमार्ग में स्त्री का वर्णन ऐसा नहीं होता । स्त्री तो देवी है। । पहले तो ऐसा रिवाज़ था कि शादी के समय इतनी ही शर्त होती थी कि एक-दो बच्चे पैदा हो जाएँ, उतना ही विषय होता था, बाकी बिल्कुल भी विषय नहीं । विषय में वे लोग पड़ते ही नहीं थे । उन लोगों को लाख रुपये दो फिर भी विषय करने को तैयार नहीं होते थे। उन्हें इतनी जागृति रहती थी कि मैं विषय करूँ, तो फोटो कैसा लगेगा ! जबकि आज तो पाँच हज़ार देकर विषय करते हैं न ! कोई भान ही नहीं है इन लोगों को। आपको ऐसा लगा है न ? हम यह सब उल्टा नहीं बोल रहे हैं न ?