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[३] अणहक्क की गुनहगारी अणहक्क से सावधान नहीं रह पाएँ तो.... यदि तू संसारी हैं तो तेरे हक़ का विषय भोगना, लेकिन अणहक्क (बिना हक़ का, अवैद्य) का विषय तो भोगना ही मत। क्योंकि इसका फल भयंकर है और यदि तू त्यागी है तो तेरी विषय की ओर दृष्टि जानी ही नहीं चाहिए। अणहक्क का ले लेना, अणहक्क की इच्छा करना, अणहक्क के विषय भोगने की भावना करना, वह सब पाशवता कहलाती है। हक़ (वैद्य) और अणहक्क इन दोनों के बीच में लाइन ऑफ डिमार्केशन तो होनी चाहिए न? और उस डिमार्केशन लाइन से बाहर निकलना ही नहीं चाहिए। फिर भी लोग डिमार्केशन लाइन से बाहर निकले हैं न?! वही पाशवता कहलाती है। हक़ का भोगने में हर्ज नहीं है।
भगवान महावीर भी खुद के हक़ का भोगते थे। वे थाली फेंक नहीं देते थे। जो हक़ का भोगे, उसे चिंता नहीं होती।
प्रश्नकर्ता : लेकिन हक़ का किसे कहें और अणहक्क का किसे कहें?
दादाश्री : अपने खुद के हक़ की चीज़ के बारे में हर एक व्यक्ति समझता है। यह मेरा और यह पराया, सभी ऐसा तुरंत ही समझ जाते हैं। मेरा बिस्तर कौन-सा, मेरा तकिया कौन-सा, यह सब तो छोटा बच्चा भी समझ जाता है। मेरी भोजन की थाली आए तो मैं अपने आप उसमें जो रखा हो वह सब खाऊँ, तो वह हक़ का कहलाएगा। उसके लिए कोई शिकायत नहीं करेगा, कोई एतराज़ नहीं करेगा, कोई दावा नहीं करेगा।