Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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सिद्धान्तज्ञाग्रणी स्व० रत्नचन्द्र : * प० पू० १०८ अजितसागरजी महाराज : आ० शिवसागरजी महाराज के शिष्य
येन पुरुषेण नरपर्यायं प्राप्य जिनागमसम्मतव्रतनियमादिकं धृतं पालितं च तस्य नरस्य जन्म सफलमस्ति । एतत्सर्वं रत्नचन्द्रेण सफलीकृतम् अतः आत्महितमिच्छद्भिः पुरुषः स्व० रत्नचन्द्र आदरणीय: स्तुत्योऽनुकरणीयश्चास्ति ।
मंगल भावना * पूज्य १०८ मुनिश्री वर्धमानसागरजी महाराज
स्वर्गीय पण्डित रतनचन्दजी मुख्तार सा० जैनजगत् के अद्वितीय विद्वान् थे। सिद्धान्तशास्त्री, न्यायतीर्थ आदि उपाधियाँ प्राप्त किये बिना भी आप विद्वानों के श्रद्धा-भाजन बने। किसी भी विद्वान् के सान्निध्य में जैन सिद्धान्त के क्रमबद्ध अध्ययन का सौभाग्य प्राप्त न होने पर भी आपने स्वयं अपने पुरुषार्थ से जैनागम रूपी सागर में डुबकी लगाकर बार-बार आगम के मन्थन-रोमन्थन से ज्ञान के महाग्रं मोती प्राप्त किये थे।
पण्डितजी से मेरा प्रथम साक्षात्कार सन् १९६८ में प्रतापगढ़ ( राजस्थान ) में परम पूज्य १०८ प्राचार्य श्री शिवसागरजी महाराज के ससंघ चातुर्मास के मङ्गलमय अवसर पर हुआ। उन दिनों संघस्थ साधुगण चतुरनुयोग सम्बन्धी ग्रन्थों में से विशेषकर करणानयोग के विभिन्न ग्रन्थों का स्वाध्याय कर रहे थे। मैंने देखा कि करणानुयोग जैसे दुरूहतम विषय को समझाने में पण्डितजी सा० अपना अपूर्व एवं अनुभवपूर्ण योग देते थे। उस समय तक प्रस्तुत अनुयोग सम्बन्धी आपका ज्ञान अगाध हो चुका था। उसके पश्चात् सन् १९७४ के वर्षायोग में आपका सान्निध्य मिला। यद्यपि मेरी अभिरुचि विद्यार्थीवत् ही थी परन्तु तब मैं अनगार दीक्षा ग्रहण कर चुका था। मैं तो सदैव ही शैक्ष्य अनगार बनकर अध्ययन की ही अभिरुचि रखता हूँ। सन् १९७४ के पश्चात् तो प्रायः पण्डितजी से सम्पर्क बढ़ता ही गया। इन्हीं दिनों मैंने उनके जीवन को निकट से देखा। जो देखा उसके अनुसार मैं दृढ़तापूर्वक कह सकता हूँ कि पण्डितजी करणानुयोग के तो उत्कृष्ट विद्वान् थे ही परन्तु जैन धर्म के अन्य तीन अनुयोगों पर भी आपका अच्छा अधिकार था। जब वे धवलादि ग्रन्थों का आधार लेकर नवतर बातें उद्धृत करके जिज्ञासुजनों की शङ्कामों का उत्तर देते थे तब कभी-कभी ऐसा आभास होता था कि "कहीं वीरसेनाचार्य ही तो इनके भीतर नहीं बोल रहे हैं।"
यद्यपि आपकी शिक्षा उद् और अंग्रेजी माध्यम से ही हई थी तथापि स्वतः ही सतत अभ्यास के बल से आपने हिन्दी-भाषा की भी अच्छी जानकारी प्राप्त कर ली थी। साथ ही नित्य प्रति ८ से १६ घण्टे तक सिद्धान्तग्रन्थों एवं अन्य ग्रन्थों के अभीक्ष्ण-पालोड़न से संस्कृत एवं प्राकृत भाषा में भी प्रवेश पा लिया था। इसका ज्वलन्त उदाहरण है आपके द्वारा लिखी गई "क्षपणासार" टीका जो आपने जयधवल मूल के चारित्रक्षपणाधिकार के अनुसार लिखी थी। कषायपाहुड़ की जयधवल टीका का यह भाग अब हिन्दी अनुवाद के साथ प्रकाशित हुआ है ।
वकालत प्रापकी आजीविका का साधन रही किंतु जबसे उसे छोड़ा तभी से आपने जैनदर्शन के विभिन्न ग्रन्थों का गहरा अध्ययन-मनन-चिन्तन लगभग ३५ वर्षों तक किया। जीवन के अन्तिम वर्षों में आपने सिद्धान्तग्रन्थों की
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