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ने क्या किया सो बात परम्परा से सुनकर, उस पर विश्वास कर उसे हम बढ़ाते आये हैं। आचार्य ने ऐसा क्यों किया, ऐसा क्यों करना चाहिए-आदि सवाल ही नहीं उठे। केवल परम्परा से सुनी-सुनायी बातें चली आयी हैं, उन पर हम विश्वास रखते चले आये हैं।" कहकर पुजारी ने मौन धारण किया।
शान्तला ने फिर पूछा, "फिर क्या हुआ?"
"फिर देवी प्रसन्न होकर आचार्य की बात मान गयीं। पर उन्होंने एक शर्त लगायी. यह शर्त थी, 'मैं आपके पीले पोले नांगी, परनु मह आप मूर्ति को प्रतिष्ठित करना चाहते हैं वहाँ पहुंचने तक आपको मुड़कर नहीं देखना चाहिए। जहाँ मुड़कर देखेंगे वहीं मैं ठहर जाऊँगी। आगे आपके साथ नहीं चलूंगी।' इस शर्त को खुशी से आचार्य ने मान लिया। फिर उन्होंने अपनी दक्षिण की यात्रा शुरू की। रास्ते में कहीं भी उन्होंने मुड़कर नहीं देखा। चलते-चलते वे तुंगा और भद्रा नदियों के संगम-स्थान पर पहुँचे। तब..."
इतने में कवि बोकिमय्या ने पूछा, "क्यों कहते-कहते रुक गये? बताइए, तब क्या हुआ?"
"वसन्त समाप्त होने को था; और ग्रीष्म ऋतु के प्रवेश का समय था; वनश्री पूर्ण रूप से हरी-भरी होकर शोभा पा रही थी पर तुंगा और भद्रा नदियाँ दुबली, पतली होकर बह रही थीं। नदी-पात्र करीब-करीब बालुकामय ही था। आचार्यजी के जल्दीजल्दी चलने का प्रयत्न करने पर भी सूर्य की प्रखर किरणों से तप्त बालुका उन्हें रोक रही थी। आचार्य अचानक रुके और पीछे मुड़कर देखने लगे। उनका अनुगमन करनेवाली देवी शारदा वहीं ठहर गयी।"
शान्तला ने पूछा, "आचार्य जी ने ऐसे मुड़कर क्यों देखा?"
"बताता हूँ! माँ शारदा को खड़ी देखकर आचार्य स्तम्भित हो गये। तब माँ शारदा ने मुसकराते हुए पूछा, 'क्यों मुझपर आपको विश्वास नहीं हुआ?' आचार्य को कुछ उत्तर नहीं सूझा । अन्त में कहा, 'माँ, अविश्वास की बात नहीं। मगर अब जो काम मैंने किया उसका यह अर्थ भी हो सकता है। परन्तु, मुझे लगता है कि माँ को मेरी इच्छा पसन्द नहीं आयी।' अम्माजी, तब देवी शारदा ने आचार्य से वही प्रश्न किया जो आपने अभी पूछा। तब आचार्य ने कहा, 'मेरी दक्षिण यात्रा के आरम्भ के समय से आज तक लगातार चलती हुई माँ के पैरों के घुघरूओं की मधुर-ध्वनि मेरा रक्षककवच बनकर रही। इस नदी-पात्र को पार करते हुए अचानक वह पधुर नाद रुक गया। इसलिए इच्छा के न होते हुए भी यन्त्रवत् मैंने मुड़कर देखा । जब आपने यह निश्चय कर लिया है कि यहीं ठहरना है तब मुझे आपके इस निश्चय को मानना ही पड़ेगा। देवी की जैसी इच्छा। यहीं मैं मूर्ति की प्रतिष्ठा करूँगा।' तब माँ शारदा देवी ने कहा, 'मेरी ऐसी कोई इच्छा नहीं। जब मैं पीछे-पीछे चल रही थी तब घुघरू के नाद के न
38 :: पट्टमहादेवी शान्तला