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अच्छे बैलोंवाली तीन बैलगाड़ियाँ तैयार हुई। रायण और रक्षक-दल के लोग घोड़ों पर जाते। साथ शान्त शाक र उमका :
कवि बोकिमय्या की सलाह के अनुसार कुछ लम्बा चक्कर होने पर भी तुंगभद्रा से संगम कूडली क्षेत्र से होकर निकले। वहाँ एक दिन ठहरें और 'शारदा देवी' का दर्शन कर आगे बढ़े-ऐसा विचार था।
वहाँ एक विचित्र घटना हुई । जब श्री शारदा देवी के मन्दिर में गये तब देवी के दायें पार्श्व से हल्दी के रंग का एक सुविकसित बड़ा फूल खिसककर नीचे गिरा। पुजारी ने उसे उठाया। चरणोदक के लोटे के साथ थाल में रखकर हेगड़ती के पास आया। चरणोदक देकर "हेग्गड़तीजी, आप बहुत भाग्यशाली हैं, माँ शारदा ने दायों ओर से यह प्रसाद दिया है, इसे लीजिए।" कहते हुए उसने फूल आगे बढ़ाया। हेग्गड़ती माचिकब्बे ने हाथ पसारा ही था कि अध्यापक बोकिमय्या ने कहा, "पुजारीजी, वह हमारी छोटी शारदा के लिए देवी द्वारा दत्त प्रसाद है, उसे अम्माजी को दीजिए।" सब लोग एक क्षण के लिए स्तब्ध रह गये। पुजारी भी सन रह गये। उसे लगा कि अध्यापक की ज्यादती है, तो भी हेग्गड़े और हेगड़ती की तरफ से किसी तरह की प्रतिक्रिया न दिखने के कारण उसने अपनी भावनाओं को अपने में ही संयमित रखा। देने व लेनेवाले दोनों के हाथ पसरे ही रह गये।
शान्तला ने कहा, "अम्मा को ही दीजिए, वे गाँध की प्रधान हेम्गड़ती हैं और बड़ी हैं। उन्हें दें तो मानो सबको मिल ही गया।"
पुजारी ने चकित नेत्रों से शान्तला की ओर देखा। कुछ निर्णय करने के पहले हो पुष्प हेगड़तीजी के हाथ में रहा। उन्होंने प्रसाद-पुष्प लेकर सर-आँखों लगाया और कहा, "गुरुजी ने जो कहा सो ठीक है बेटी ! यह प्रसाद तो तुमको ही मिलना चाहिए।"
शान्तला ने प्रसाद-पुष्प को दोनों हाथों में लिया, आँखों लगाया। पुजारी को चरणोदक देने के लिए सामने खड़ा देख माचिकब्बे ने कहा, "फूल जूड़े में पहन लो, पुजारी जी चरणोदक दीजिए।" ।
शान्तला बोली, "बाकी सबको भी दीजिए, इतने में मैं फूल पहन लँगी।" पुजारी ने हेग्गड़े की ओर देखा। उन्होंने इशारे से अपनी सम्मति जता दी।
शान्तला के जूड़े की शोभा को बढ़ा रहा था वह प्रसाद-पुष्य। सबको तीर्थप्रसाद बाँटकर पुजारी शान्तला के पास आया। एकाग्र भाव से शान्तला शारदा की मूर्ति को अपलक देखती खड़ी रही। पुजारी ने कहा, "तीर्थ लीजिए अम्माजी।"
शान्तला ने तीर्थ और प्रसाद लिया।
शान्तला ने एक सवाल किया, "गुरुजी, यह देवी शारदा यहाँ क्यों खड़ी हैं? वहाँ बलिपुर में महाशिल्पी दासोजा जी के यहाँ शारदा देवी की बैठी हुई मूर्ति देखी थी।"
"शिल्पी की कल्पना के अनुसार वह मूर्ति को गढ़ता है। इस मूर्ति को गदनेवाले
२६ :: यपहादेवी शान्तला