Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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उत्थानिका शिष्ट जन इष्ट देव के नमस्कारपूर्वक ही अभीप्सित कार्य में प्रवृत्ति करते हैं, अथवा मंगलवाचक शब्दों के उच्चारणपूर्वक कार्य प्रारम्भ करते हैं । अतः आचार्यप्रवर भी शिष्ट जनसम्मत परम्परा का अनुसरण करते हुए विघ्नोपशांति के लिए सर्वप्रथम मंगलाचरण करते हैं
नमिऊण जिणं वीरं सम्म दुद्रुकम्मनिट्ठवगं ।
वोच्छामि पंचसंगहमेय महत्थं जहत्थं च ॥१॥ शब्दार्थ-नमिऊण-नमस्कार करके, जिणं-जिन, वीरं-वीर को, सम्म-सम्यक् प्रकार से-विधिपूर्वक, दुट्ठट्टकम्मनिट्ठवर्ग--दुष्ट अष्ट कर्मों का नाश करने वाले, वोच्छामि-कहूँगा, पंचसंगह-पंचसंग्रह को, एयइस, च-और, महत्थं-महान अर्थ वाले, जहत्थं यथार्थ ।
गाथार्थ-दुष्ट अष्ट कर्मों का नाश करने वाले जिन भगवान् महावीर को सम्यक् प्रकार से विधिपूर्वक नमस्कार करके महान अर्थ वाले इस 'पंचसंग्रह' नामक ग्रन्थ को यथार्थ रूप में कहूँगा।
विशेषार्थ-आचार्यप्रवर ने गाथा में इष्ट देव के रूप में वीर जिनेश्वर को नमस्कार करते हुए ग्रन्थ का नामोल्लेख और उसका माहात्म्य प्रदर्शित किया है।
मंगलाचरण के दो प्रकार हैं-निबद्ध और अनिबद्ध, अथवा व्यक्त और अव्यक्त । निबद्ध और व्यक्त मगल वचनरूप और अनिबद्धअव्यक्त मंगल स्मरणरूप होता है। ये दोनों मंगल भी आदि, मध्य और अन्त के भेद से तीन प्रकार के हैं। आदिमंगल प्रारम्भ किये जा रहे कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिए, मध्यमंगल प्राप्त सफलता के
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