Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
योगोपयोगमार्गणा अधिकार : गाथा १६-१६
१३५
यद्यपि अप्रमत्तसंयतदशापन्न जीव वीतरागदशा, स्वरूप रमणता प्राप्त करने की ओर उन्मुख हो जाते हैं तथापि छद्मस्थ कर्मावृत हैं । जिससे पूर्ण वीतरागदशा प्राप्त करने में व्यवधान आता है । कर्म और आत्मशक्ति के बीच अपनी-अपनी प्रबलता के परीक्षण का एक ऐसा प्रसंग उपस्थित होता है कि जो जय-पराजय का निर्णायक होता है । अतः कितने ही अप्रमत्तसंयतगुणस्थानवर्ती जीव आत्मशक्ति की प्रबलता से संगठित कर्मशक्ति का छेदन - भेदन करने के लिए तत्पर हो जाते हैं और इसके लिए श्रेणिक्रम पर आरोहण करते हैं । जिसमें कर्मों की स्थिति, विपाकशक्ति को अधिक से अधिक निष्क्रिय, निर्बल बनाते हैं । जिससे पारिणामिक शुद्धि पूर्व की अपेक्षा विशेष विशेष बढ़ती जाती है । अर्थात् परिणाम शुद्ध शुद्धतर होते जाते हैं । यह पारिणामिक शुद्धि प्रतिसमय अपूर्व ही होती है । इस दशा में वर्तमान जीवों का दर्शक आठवां अपूर्वकरणगुणस्थान है ।
यद्यपि श्रेणी के आरोहण के कारण काषायिक भावों में काफी निर्बलता आ जाती है और क्रमिक विशुद्धता भी बढ़ती जाती है, तथापि उन कषायों में उद्र ेक की शक्ति बनी रहती है । अतः ऐसे जीवों का बोधक अनिवृत्तिबादरसंपराय नामक नौवां गुणस्थान है | इस गुणस्थान में भी कषायों को कृश करने का क्रम तो पूर्ववत् चलता रहता है, जिससे अंत में एक ऐसी स्थिति आती है कि उन कषायों की झांई मात्र जैसी स्थिति रह जाती है । इस स्थिति वाले जीवों को बताने वाला दसवां सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान है ।
किसी भी वस्तु के इस प्रकार की स्थिति बनने पर दो रूप बन सकते हैं कि या तो वह नष्ट हो जाये अथवा तिरोहित हो जाये । कषायों के लिए भी यही समझना चाहिए। दोनों ही स्थितियों में जीव को अपने निर्मल स्वभाव के दर्शन होंगे। तिरोहित, शांत स्थिति को बताने वाला ग्यारहवां उपशांतमोहवीतराग छद्मस्थगुणस्थान
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org