Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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योगोपयोगमार्गणा अधिकार : गाथा १६-१८
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यथार्थ प्रतीति नहीं हो, उस आत्मा को मिथ्यादृष्टि और उसके ज्ञानादि गुणों के स्वरूपविशेष को मिथ्यादृष्टिगुणस्थान कहते हैं ।
प्रश्न- यदि आत्मा मिथ्यादृष्टि - विपरीतदृष्टि वाला है तो उसे गुणस्थान कैसे कह सकते हैं। क्योंकि गुण तो ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप हैं । जब विपरीत प्रतीति, श्रद्धा हो तब वे गुण कैसे हो सकते हैं । अर्थात् ज्ञानादि गुण जब मिथ्यात्वमोह के उदय से दूषित हों तब उन दूषित गुणों को गुणस्थान कैसे कहा जा सकता है ?
उत्तर—– यद्यपि तत्त्वार्थं की श्रद्धा रूप आत्मा के गुण को सर्वथा आच्छादित करने वाले प्रबल मिथ्यात्वमोहनीय के विपाकोदय से प्राणियों की जीव-अजीव आदि वस्तुओं की प्रतीति रूप तात्त्विक श्रद्धा विपरीत होती है, तथापि प्रत्येक प्राणी में यह मनुष्य है, यह पशु है, इत्यादि रूप से कुछ प्रतीति होती है । इतना ही क्यों, निगोदावस्था में भी यह उष्ण है, यह शीत है, इस प्रकार की स्पर्शनेन्द्रिय के विषय की प्रतीति (ज्ञान) अविपरीत होती है । जैसे कि अति सघन बादलों से चन्द्र और सूर्य की प्रभा के आच्छादित होने पर भी संपूर्णतया उसकी प्रभा का नाश नहीं होता है, आंशिक रूप से खुली रहती है, जिससे दिन-रात का विभाग किया सके। यदि वह अंश भी खुला न रहे तो प्राणिमात्र में प्रसिद्ध दिन-रात का भेद ही नहीं किया जा सकता है । इसी प्रकार यहाँ भी प्रबल मिथ्यात्वमोह के उदय से सम्यक्त्व रूप आत्मा का स्वरूप आच्छादित रहने पर भी उसका कुछ न कुछ अंश अनावृत रहता है। जिसके द्वारा मनुष्य और पशु आदि विषयों की अविपरीत प्रतीति प्रत्येक आत्मा को होती है । इस अंश गुण की अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि को गुणस्थान माना जाता है ।
प्रश्न - अंशगुण की अपेक्षा जब मिथ्यादृष्टि को गुणस्थान माना जाता है, तब उसे सम्यग्दृष्टि कहने और मानने में क्या आपत्ति है ?
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