Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
संज्ञी-असंज्ञी सम्बन्धी विशेषावश्यकभाष्यगत
विवेचन नामनिक्षेप, ज्ञान और इच्छा के भेद से संज्ञी शब्द के तीन अर्थ हैं । मामनिक्षेप व्यवहार चलाने के लिए किसी का जो नाम रख दिया जाता है-'सज्ञा नामेत्युच्यते' । जैसे राम, महावीर आदि । धारणात्मक या ऊहापोह रूप विचारात्मक ज्ञानविशेष अर्थात् नोइन्द्रियावरणकर्म के क्षयोपशम से जन्य ज्ञान को संज्ञा कहते हैं । आहार, भय, मैथुन, परिग्रह आदि की इच्छाअभिलाषा संज्ञा है-'आहारादि विषयाभिलाषा संज्ञति' । ___जीवों के संज्ञित्व-असंज्ञित्व के विचार करने के प्रसंग में संज्ञा का आशय नामनिक्षेपात्मक न लेकर मानसिक क्रियाविशेष लिया जाता है । मानसिक क्रिया के दो प्रकार हैं-ज्ञानात्मक और अनुभवात्मक-अभिलाषात्मक (आहारादि की इच्छा रूप) । इसीलिए इस दृष्टि से संज्ञा के हो भेद हैं-ज्ञान और अनुभव ।
मति, श्रुत आदि पांच प्रकार के ज्ञान ज्ञानसंज्ञा हैं और आहार, भय, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, ओघ, लोक, मोह, धर्म, सुख, दुःख, जुगुप्सा और शोक ये अनुभवसंज्ञा के भेद हैं।
ये अनुभवसंज्ञायें न्यूनाधिक प्रमाण में सभी जीवों के पाई जाती हैं । इसलिए ये तो संज्ञी-असंज्ञी व्यवहार की नियामक नहीं हैं किन्तु ज्ञानसंज्ञा है । उसका लक्षण ऊपर बताया जा चुका हैं कि नोइन्द्रियावरणकर्म के क्षयोपशम या तज्जन्य ज्ञान को संज्ञा कहते हैं। नोइन्द्रियावरणकर्म का क्षयोपशम होने पर जीव मन के अवलम्बन से शिक्षा आदि को ग्रहण करता है ।
यद्यपि चैतन्य की अपेक्षा सभी जीव सामान्य हैं। क्योंकि चैतन्य जीव का स्वभाव-स्वरूप है परन्तु संसारी जीवों में चैतन्य के विकास की अपेक्षा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org