Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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योगोपयोगमार्गणा-अधिकार : परिशिष्ट २
ये उन्नीस भेद सामान्य से हैं । इनको पर्याप्त, अपर्याप्त से गुणा करने पर अड़तीस तथा पर्याप्त, निवृत्यपर्याप्त और लब्ध्यपर्याप्त से गुणा करने पर सत्तावन भेद होते हैं । __ चार गतियों की अपेक्षा जीवस्थानों की संख्या इस प्रकार समझना चाहिए
तिर्यंचगति-जीवस्थानों के उक्त सत्तावन भेदों में एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय सम्बन्धी इक्यावन भेद बतलाये हैं। कर्मभूमिज पंचेन्द्रिय तिर्यंच के तीन भेद हैं—जलचर, थलचर और नभचर । ये तीनों ही तिर्यंच संज्ञी और असंज्ञी होते हैं तथा गर्भज और संमूच्छिम होते हैं। परन्तु गर्भज तो पर्याप्त और निवृत्यपर्याप्त ही होते हैं और संमूच्छिमों में पर्याप्त, निवृत्यपर्याप्त, लब्ध्यपर्याप्त तीनों ही भेद होते हैं । इसलिए संमूच्छिमों के अठारह भेद और गर्भजों के बारह भेद । सब मिलाकर कर्मभूमिज तिर्यचों के तीस भेद होते हैं । भोगभूमिज पंचेन्द्रिय तिर्यंच के थलचर, नभचर दो ही भेद होते हैं' और ये दोनों ही पर्याप्त, निवृत्यपर्याप्त होते हैं। इसलिए भोगभूमिज तिर्यंचों के चार भेद और कर्मभूमिज तिर्यंचों के तीस भेदों को उक्त इक्यावन भेदों में मिलाने से तिर्यंचगति सम्बन्धी सम्पूर्ण जीवस्थान पचासी होते हैं। ____ मनुष्यगति--आर्यखंड में पर्याप्त, निवृत्यपर्याप्त, लब्ध्यपर्याप्त तीनों ही प्रकार के मनुष्य होते हैं तथा म्लेच्छखंड, भोगभूमि, कुभोगभूमि में लब्ध्यपर्याप्त को छोड़कर दो-दो प्रकार के होते हैं। इस प्रकार तीन, दो, दो, दो, कूल मनुष्यों में नौ जीवस्थान हैं ।
देव नरक गति-लब्ध्यपर्याप्त के सिवाय शेष निवृत्यपर्याप्त और पर्याप्त दो-दो भेद होते है।
इस प्रकार तिर्यंचों के पचासी, मनुष्यों के नौ, देवों के दो, नारकों के दो, कुल मिलाकर जीवस्थानों के अवान्तर भेद अट्रानव होते हैं।'
१ भोगभूमि में जलचर, संमूच्छिम तथा असंज्ञी जीव नहीं होते हैं । २ दिगम्बर पंचसंग्रह और गोम्मटसार जीवकाण्ड के आधार से ।
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