Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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दिगम्बर कर्मसाहित्य में जीवस्थानों में योग- उपयोग का निर्देश
श्वेताम्बर और दिगम्बर साहित्य में कुछ मतभिन्नतायें हैं, लेकिन उसकी अपेक्षा समानतायें अधिक हैं । इसका मूल कारण यही है कि दोनों का मूल स्रोत एक है । यही बात कर्म विचारणा के लिये भी समझना चाहिए | कर्म - विचारणा के प्रसंग में तो दोनों परम्परायें इतनी अधिक समानतंत्रीय हैं कि समान वर्णन, समान दृष्टिकोण देखने से यह अनुभव नहीं होता है कि यह ग्रन्थ तो अमुक परम्परा का है और यह अनुक परम्परा का । लेकिन संक्षेप या विस्तार की अपेक्षा अवश्य ज्ञात होती है ।
श्वेताम्बर कर्म साहित्य की तरह दिगम्बर साहित्य में भी जीवस्थानों आदि में योगोपयोग का विचार किया गया है । तुलनात्मक दृष्टि से उसका बोध कराने के लिये जीवस्थानों आदि में योग- उपयोग के विचारों का संक्षेप में यहाँ सारांश प्रस्तुत करते हैं ।
(क) जीवस्थानों के योग
सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त पर्याप्त आदि चौदह जीवस्थानों के नाम पूर्व में बताये गये अनुसार दिगम्बर कर्मसाहित्य में भी प्राप्त होते हैं और इनको आधार बनाकर उनमें प्राप्त योगों का निर्देश किया है । सामान्य से जीवस्थानों में योगों का निर्देश इस प्रकार है
नौ जीवस्थानों में एक योग होता है, चार जीवस्थानों में दो योग और एक जीवस्थान में चौदह योग होते हैं । ये योग अपने वर्तमान भव के शरीरों में विद्यमान जीवों में जानना चाहिए । किन्तु भवान्तरगत अर्थात् विग्रहगति बाले जीवों के केवल एक कार्मणकाययोग होता है ।
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