Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 288
________________ योगोपयोगमार्गणा - अधिकार : परिशिष्ट २ समुद्घात के छठे समय से सयोगिकेवलिगुणस्थान के चरम समय तक के काल में अन्तर्मुहूर्त काल वाले असंख्यात स्थितिघात और रसघात होते हैं और वेदी आदि तीन कर्मों की स्थिति भी आयु के समान हो जाती है । अधिक स्थिति वाले वेदनीय आदि तीन अघातिकर्मों की स्थिति को आयु की स्थिति के बराबर करना ही समृद्धात रूप प्रयत्न का उद्देश्य है । लेकिन जिन सयोगिकेवली आत्माओं की वेदनीय आदि तीन अघातिकर्मों की स्थिति आयु के बराबर है, वे समुद्घात करने का प्रयत्न नहीं करती हैं और बिना समुद्घात किये ही जरा-मरण आदि से रहित होकर मोक्षस्थान को प्राप्त कर लेती हैं । जब आयु का अन्तिम समय आता है तब ये सयोगिकेवलि आत्मायें योगनिमित्तक बंध का नाश करने के लिये योगनिरोध की प्रक्रिया की ओर उन्मुख होती हैं । अतएव प्रासंगिक होने से संक्षेप में योगनिरोध की प्रक्रिया का वर्णन करते हैं । योगनिरोध को प्रक्रिया योगनिरोध करने वाली वीर्यव्यापार को बन्द करने वाली आत्मा प्रथम बादर काययोग के बल से अन्तर्मुहूर्त मात्र काल में बादर वचनयोग का निरोध करती है और उसका निरोध करने के पश्चात् अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त उसी अवस्था में रहकर बादर काययोग के अवलम्बन से बादर मनोयोग का अन्तमुहूर्तकाल में निरोध करती है । वचनयोग और मनोयोग को रोकने हेतु अवलम्बन के लिये बादर काययोग वीर्यवान आत्मा का करण - उत्कृष्ट साधन माना है । यानि वचन, मन और काया द्वारा वीर्यव्यापार का रोध करने के लिये अवलम्बन की आवश्यकता होती है और उसके लिये काययोग अवलम्बन है । अतएव काय द्वारा होने वाले वीर्यव्यापार से पहले बादर वचनयोग और तत्पश्चात् बादर मनोयोग का रोध करती है । ४७ बादर मनोयोग का रोध करने के पश्चात् अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त उसी स्थिति में रहकर उच्छ्वासनिःश्वास को अन्तर्मुहूर्तकाल में रोकती है । तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्त उसी स्थिति में रहकर सूक्ष्म काययोग के द्वारा बादर काययोग का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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