Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 286
________________ योगोपयोगमार्गणा अधिकार : परिशिष्ट २ सहननपंचक, अप्रशस्त वर्णादि चतुष्क, उपघात, अप्रशस्तविहायोगति, अपर्याप्त, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयशकीति और नीचगोत्र रूप पच्चीस अशुभ प्रकृतियों के अनन्त भागप्रमाण रस का घात करती है और एक अनन्तवां भाग शेष रहता है । उसी समय सातावेदनीय, देवद्विक, मनुष्यद्विक, पंचेन्द्रियजाति, शरीरपंचक, अंगोपांगत्रय, प्रथम संहनन, प्रथम संस्थान, प्रशस्त वर्णादि चतुष्क, अगुरुलघु, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, आतप, उद्योत, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशःकीर्ति, निर्माण, तीर्थंकर और उच्चगोत्र रूप उनतालीस प्रकृतियों के रस को पापप्रकृतियों के रस में प्रवेश कराने के द्वारा —— संक्रमित करने के द्वारा नाश करती है । यह परिणाम समृघात की सामर्थ्य से होता है । पहले समय जो असंख्यातवें भागप्रमाण स्थिति और अनन्तवें भागप्रमाण रस शेष रहा था, उसके बुद्धि द्वारा अनुक्रम से असंख्यात और अनन्त भाग करके उसमें से एक-एक भाग शेष रख बाकी की स्थिति के असंख्यातवें भाग और रस के अनन्त भागों को दूसरे कपाट के समय एक साथ घात करती है । यहाँ भी प्रथम समय की तरह अप्रशस्त प्रकृतियों के रस में प्रवेश कराने के द्वारा — संक्रमित कराने के द्वारा प्रशस्त प्रकृतियों के रस का क्षय करती है । दूसरे समय में क्षय होने से शेष रही हुई स्थिति और अवशिष्ट रस के पुनः बुद्धि के द्वारा अनुक्रम से असंख्यात और अनन्त भाग करके उसमें से एक एक भाग को शेष रख बाकी की स्थिति के असंख्यात भागों और रस के अनन्त भागों को तीसरे मंथानी के समय में एक साथ घात करती है । यहाँ भी पुण्य प्रकृतियों के रस को पाप प्रकृतियों के रस में संक्रमित करके क्षय करती है । तीसरे समय में अवशिष्ट स्थिति के असंख्यातवें भाग और रस के अनन्तवें भाग के बुद्धि के द्वारा अनुक्रम से असंख्यात और अनन्त भाग करके उनमें से चौथे समय में स्थिति के असंख्यात भागों का क्षय करती है और एक भाग शेष रखती है । इसी प्रकार रस के अनन्त भागों का क्षय करती है और एक भाग शेष रखती है । पुण्य प्रकृतियों के रस का क्षय भी पूर्व की तरह ही होता है । Jain Education International ४५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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