Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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योगोपयोगमार्गणा-अधिकार : परिशिष्ट २
असत्यामृषावचनयोग में पर्याप्त द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय, संज्ञी पंचेन्द्रिय-ये पांच जीवस्थान होते हैं। औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग में सूक्ष्म एकेन्द्रिय आदि संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त सातों अपर्याप्तक तथा संज्ञी पर्याप्तक ये आठ जीवस्थान होते हैं तथा औदारिककाययोग में सातों पर्याप्तक जीवस्थान जानना चाहिये । वैक्रियकाययोग, आहारकद्विककाययोग में एक संज्ञी पर्याप्तक जीवस्थान तथा वैक्रिय मिश्रकाययोग में एक संज्ञी अपर्याप्तक जीवस्थान होता है। ___वेदमार्गणा की अपेक्षा स्त्रीवेद और पुरुषवेद में संज्ञी-असंज्ञी पर्याप्तकअपर्याप्तक ये चार जीवस्थान होते हैं तथा नपुसकवेद और कषायमार्गणा की अपेक्षा क्रोधादि चारों कषायों में सभी चौदह जीवस्थान जानना चाहिये । ___ ज्ञानमार्गणा की अपेक्षा मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान में चौदह जीवस्थान होते हैं तथा मति, श्रुत और अवधि ज्ञान में संज्ञी पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो जीवस्थान पाये जाते हैं तथा विभंगज्ञान, मनपर्याय और केवलज्ञान में एक संज्ञी पर्याप्तक जीवस्थान होता है।
केवलज्ञान में विशेषापेक्षा संज्ञी पर्याप्त और संज्ञी अपर्याप्त ये दो जीवस्थान भी माने जा सकते हैं और यह अपर्याप्तता सयोगिकेवलियों क समुद्घात अवस्था में पाई जाती है। इसी दृष्टि से दो जीवस्थान समझना चाहिये । अन्यथा सामान्य से एक संज्ञी पर्याप्त जीवस्थान होता है ।
संयममार्गणा की अपेक्षा सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसम्पराय, यथाख्यात और देशविरत इन छहों में एक संज्ञी पर्याप्तक जीवस्थान जानना चाहिये । असंयम में सभी चौदह जीवस्थान पाये जाते हैं।
दर्शनमार्गणा की अपेक्षा चक्षुदर्शन में पर्याप्त-अपर्याप्त चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय असंज्ञी, संज्ञी ये छह और अचक्षुदर्शन में सभी चौदह जीवस्थान पाये जाते हैं । अवधिदर्शन में संज्ञी पर्याप्तक और अपर्याप्तक ये दो जीवस्थान होते हैं । केवलदर्शन में एक संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवस्थान होता है। यदि सयोगिकेवली की समुद्घात अवस्था की अपेक्षा विचार किया जाये तो संज्ञी अपर्याप्त जीवस्थान भी सम्भव होने से केवलदर्शन में दो जीवस्थान माने जायेंगे। Jain Education International
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