Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
१३ दिगम्बर कर्मग्रन्थों में वर्णित मार्गणास्थानों में जीवस्थान
मार्गणास्थानों के अवान्तर बासठ भेदों में प्राप्त चौदह जीवस्थान इस प्रकार बतलाये हैं—
गतिमार्गणा की अपेक्षा तिर्यंचगति में एकेन्द्रिय से लेकर संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त सभी प्रकार के जीव होने से सभी चौदह जीवस्थान होते हैं तथा शेष देव, मनुष्य और नरक गति में संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त अपर्याप्त रूप दो-दो जीवस्थान जानना चाहिये ।
इन्द्रियमार्गणा की अपेक्षा एकेन्द्रियों में बादर पर्याप्त, बादर अपर्याप्त, सूक्ष्म पर्याप्त, सूक्ष्म अपर्याप्त ये चार जीवस्थान होते हैं । विकलेन्द्रियत्रिक में द्वीन्द्रिय पर्याप्त, द्वीन्द्रिय अपर्याप्त, त्रीन्द्रिय पर्याप्त, त्रीन्द्रिय अपर्याप्त चतुरिन्द्रिय पर्याप्त चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त, ये छह जीवस्थान होते हैं और अपनी-अपनी अपेक्षा प्रत्येक में दो-दो जीवस्थान समझना चाहिये । पंचेन्द्रिय में असंज्ञी पर्याप्त, असंज्ञी अपर्याप्त, संज्ञी पर्याप्त और संज्ञी अपर्याप्त ये चार जीवस्थान होते हैं ।
,
कायमाणा की अपेक्षा पृथ्वी आदि पांचों स्थावर कायों में से प्रत्येक में बादर सूक्ष्म और ये दोनों भी पर्याप्त अपर्याप्त इस प्रकार चार-चार जीवस्थान जानना चाहिये । त्रस जीवों में से विकलत्रयों में प्रत्येक के पर्याप्त अपर्याप्त ये दो-दो जीवस्थान जानना चाहिये तथा सकलेन्द्रियों (पंचेन्द्रियों) में संज्ञी, असंज्ञी और उनके पर्याप्त, अपर्याप्त ऐसे दो-दो मिलकर कुल चार जीवस्थान पाये जाते हैं ।
योगमार्गणा में असत्यामृषावचनयोग को छोड़कर शेष तीन वचनयोगों में और चारों मनोयोगों में एक संज्ञी पर्याप्तक जीवस्थान जानना चाहिये ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Jain Education International