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पंचसंग्रह ( १ )
श्यामार्गणा की अपेक्षा कृष्णादि तीनों अशुभ लेश्याओं में चौदह तथा तेज, पद्म और शुक्ल इन शुभ लेश्यात्रिक में संज्ञी पर्याप्तक और अपर्याप्तक ये दो-दो जीवस्थान पाये जाते हैं ।
भव्य मार्गणा की अपेक्षा भव्य और अभव्य के सभी चौदह जीवस्थान होते हैं ।
सम्यक्त्वमार्गणा की अपेक्षा औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक इन तीनों सम्यग्दर्शनों में संज्ञी पर्याप्तक- अपर्याप्तक ये दो-दो जीवस्थान होते हैं । विशेषता के साथ स्पष्टीकरण इस प्रकार है कि प्रथमोपशम सम्यक्त्व में मरण नहीं होने से एक संज्ञी पर्याप्तक जीवस्थान होगा । द्वितीयोपशम सम्यक्त्व में मनुष्य की अपेक्षा संज्ञी पर्याप्त और देवों की अपेक्षा संज्ञी अपर्याप्त - इस प्रकार दो जीवस्थान होते हैं । क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में संज्ञी अपर्याप्त जीवस्थान मानने का कारण यह है भवनत्रिक को छोड़कर देवों के, प्रथम पृथ्वी के नारकों के तथा भोगभुमिज मनुष्य-तिर्यंचों के अपर्याप्त अवस्था में भी वह सम्भव है । बद्धायुष्क प्रथम पृथ्वी के नारकों, भोगभूमिज मनुष्य-तिर्यंचों और वैमानिक देवों को अपर्याप्त अवस्था में भी क्षयिकसम्यक्त्व सम्भव होने से क्षायिकसम्यक्त्व में संज्ञी पर्याप्त, अपर्याप्त ये दो जीवस्थान माने जाते हैं ।
सासादनसम्यक्त्व में विग्रहगति की अपेक्षा सातों अपर्याप्तक और संज्ञी पर्याप्त ये आठ जीवस्थान होते हैं। मिश्रसम्यक्त्व में एक संज्ञी पर्याप्तक जीवस्थान तथा मिथ्यात्व में सभी जीवस्थान जानना चाहिए ।
संज्ञीमार्गणा की अपेक्षा संज्ञी पंचेन्द्रियों में संज्ञी पर्याप्तक और अपर्याप्तक ये दो जीवस्थान पाये जाते हैं तथा असंज्ञी पंचेन्द्रियों में संज्ञी पंचेन्द्रिय सम्बन्धी दो जीवस्थानों को छोड़कर शेष जीवस्थान होते हैं ।
आहारमार्गणा की अपेक्षा आहारक जीवों में सभी चौदह जीवस्थान और अनाहारक जीवों में सातों अपर्याप्तक और एक संज्ञी पर्याप्तक कुल मिलाकर आठ जीवस्थान होते हैं ।
इस प्रकार मार्गणास्थानों में जीवस्थानों की प्राप्ति का कथन समझना चाहिये ।
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