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योगोपयोगमार्गणा अधिकार : परिशिष्ट २
विशेष
सामान्य से मनोयोग वाले जीवों के वचन व काययोग और वचनयोग वालों के काययोग होता है । जिससे काययोग में चौदह, वचनयोग में एकेन्द्रिय के चार भेद बिना शेष दस और मनोयोग में संज्ञी पर्याप्त-अपर्याप्त ये दो जीव-भेद होते हैं । परन्तु यहां मनोयोग वालों के वचनयोग और काययोग की तथा वचनयोग वालों के काययोग की गौणता मानकर मनोयोग में दो, वचनयोग में आठ और काययोग में चार जीवस्थान का संकेत किया है।
लेकिन छठी गाथा में लब्धि-अपर्याप्त की विवक्षा होने से और उनके क्रिया का समाप्ति काल न होने से उसकी गौणता मान लब्धि-अपर्याप्त द्वीन्द्रियादि चार भेद में वचनयोग और संज्ञी-अपर्याप्त में मनोयोग की विवक्षा नहीं की है, जबकि यहाँ लब्धि-पर्याप्त की विवक्षा होने से करण-अपर्याप्त अवस्था में उन लब्धि-- पर्याप्त जीवों के करण-पर्याप्त जीवों की तरह क्रिया का प्रारम्भ काल और समाप्ति काल एक मान अपर्याप्त द्वीन्द्रियादि चार में भी वचनयोग और संज्ञीअपर्याप्त में मनोयोग कहा है तथा मनोयोग की प्रधानता वाले जीवों के वचन व काययोग की और वचनयोग की प्रधानता वालों के काययोग की गौणता मानकर छठी गाथा के अनुसार लब्धि-अपर्याप्त की विवक्षा करें और वहाँ बताये गये अनुसार योग घटित करें तो मात्र संज्ञी पर्याप्त रूप एक जीवभेद में मनोयोग, पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय और पर्याप्त विकलेन्द्रिय इन चार में वचनयोग और शेष नौ जीवभेदों में काययोग होता है।
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