Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 285
________________ ४४ पंचसंग्रह (१) में वेदनीय आदि से आयु अधिक स्थितिवाली नहीं होती है ? तो इसका उत्तर यह है जीवस्वभाव ही यहाँ कारण है। आत्मा का इसी प्रकार का परिणाम है कि जिसके द्वारा वेदनीय आदि कर्म के बराबर अथवा न्यून ही आयुस्थिति होती है, किन्तु किसी भी समय वेदनीय आदि कर्म से अधिक नहीं होती है, जैसे आयकर्म के अध्रुवबंध में जीवस्वभाव कारण है । आयुकर्म के सिवाय ज्ञानावरण आदि सातों कर्म तो प्रति समय बंधते रहते हैं, किन्तु आयु तो अपने भुज्यमान भव की आयु के तीसरे भाग, नौवें भाग आदि निश्चित काल में ही बंधती है, परन्तु प्रतिसमय नहीं बंधती है । इस प्रकार के बंध की विचित्रता के नियम में जैसे स्वभाव के सिवाय अन्य कोई हेतु नहीं है, उसी प्रकार वेदनीय आदि कर्म न्यून अथवा समान आयु होने में जीवस्वभावविशेष ही कारण है, इसके सिवाय अन्य कोई हेतु नहीं है। समुद्घात करने वाली केवली आत्मा पहले समय में मोटाई में अपने शरीरप्रमाण और ऊर्ध्वलोकान्त प्रमाण अपने आत्मप्रदेशों को दंड रूप बनाती है। दूसरे समय में अपने प्रदेशों को पूर्व-पश्चिम अथवा दक्षिण-उत्तर में कपाट रूप करती है । तीसरे समय में मंथानी रूप करती है और चौथे समय में अवशिष्ट अन्तरालों को पूर्ण करती है। जिससे सम्पूर्ण चौदह राजू लोकव्यापी आत्मा हो जाती है । इसके बाद संहरण का क्रम प्रारम्भ होता है। जिससे पांचवें समय में अन्तरालों का, छठे समय में मथानी का, सातवें समय में कपाट का संहरण करती है और आठवें समय में दंड का संहरण करके शरीरस्थ होती है। इस प्रकार आठ समय प्रमाण केवलिसमुद्घात होता है । इस आठ समय प्रमाण वाले समुद्घात के पहले दंडसमय में वेदनीय, नाम और गोत्र कर्म की पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण जो स्थिति थी, इसके बुद्धि के द्वारा असंख्यात भाग करके उनमें का एक असंख्यातवां भाग शेष रख वाकी की असंख्यातभाग प्रमाण स्थिति का आत्मप्रदेशों को दंड रूप करती आत्मा एक साथ घात करती है और पहले तीन कर्मों के रस के अनन्त भाग कर उनमें से दंड समय में असातावेदनीय, प्रथम को छोड़कर शेष संस्थानपंचक और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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