Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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केवलिसमुद्घात-सम्बन्धी प्रक्रिया
जब आत्मा ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय इन घातिकर्मों का निःशेष रूप से क्षय करके आत्मरमणता के साथ सम्पूर्ण लोकव्यापी पदार्थों को हस्तामलकवत् जानने-देखने का बोध प्राप्त कर लेती है, तब उसे केवलज्ञानी कहते हैं। लेकिन अभी भी वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र नामक चार अघातिकर्मों के शेष रहने के कारण अपने वर्तमान भव में रहते हुए मनवचन-काययोगों सहित होती है, तब सयोगिकेवली कहलाती है और इस अवस्था का बोधक सयोगिकेवलीगुणस्थान है ।
सयोगिकेवलियों में से जिनके आयुकर्म की स्थिति कम और वेदनीय आदि अवशिष्ट तीन अघातिकर्मों की स्थिति अधिक होती है, तब आयुकर्म की स्थिति से अधिक स्थितिवाले वेदनीय आदि उन तीन कर्मों की स्थिति को आयुकर्म की स्थिति के बराबर करने के लिये आत्मा का जो प्रयत्नविशेष होता है, उसे समुद्घात कहते हैं। इस समुद्घात का काल आठ समय प्रमाण है । इतने समय में वह आत्मा वेदनीय आदि तीन अघातिकर्मों की अधिक स्थिति को आयूकर्म की स्थिति के बराबर कर लेती है। जिससे आयूक्षय के साथ-साथ अवशिष्ट वेदनीय आदि तीन कर्मों का भी क्षय हो जाने पर सर्वदा के लिये निष्कर्म अवस्था को प्राप्त करके सिद्धिस्थान में रहते हुए आत्मरमणता का अनुभव करती है । संसार के कारण भूत कर्मों का निःशेषरूपेण क्षय हो जाने से पुनः संसार में नहीं आती है । अर्थात सिद्ध होने के अनन्तर अनन्तकाल तक आत्मरमण करती रहती है।
परम आत्मरमणता ही जीवमात्र का साध्य है और उसकी सिद्धि हो जाने के बाद अन्य कुछ करना शेष नहीं रहता है ।
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