Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 282
________________ योगो प्रयोगमार्गणा - अधिकार : परिशिष्ट २ विशुद्धि की अपेक्षा जघन्य अध्यवसाय से कितने ही अध्यवसाय अनन्तभागवृद्ध अधिक विशुद्ध, कितने ही असंख्यातभाग अधिक विशुद्ध, कितने ही संख्या - भाग अधिक विशुद्ध, इसी प्रकार कितने ही संख्यातगुण, असंख्यातगुण और अनन्तगुण अधिक विशुद्ध होते हैं । इस प्रकार इस गुणस्थान में किसी भी समय में वर्तमान अध्यवसाय षट्स्थानपतित होते हैं । इस गुणस्थान में एक साथ चढ़े हुए जीवों के अध्यवसायों में इस प्रकार की परस्पर विशुद्धि का तारतम्य होने से अपूर्वकरणगुणस्थान का अपर नाम निवृत्ति अथवा निवृत्तिकरण भी है । Jain Education International ४१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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