Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 280
________________ योगोपयोगमागणा-अधिकार : परिशिष्ट २ अशुभ प्रकृतियों के दलिकों को बध्यमान शुभ प्रकृतियों में पूर्व पूर्व समय की अपेक्षा उत्तरोत्तर समय में असंख्यात-गुणवृद्धि से संक्रांत करना गुणसंक्रम कहलाता है। अशुभ प्रकृतियों की वैसी अवस्था हो जाने पर भी अभी पूर्ण निष्कर्म अवस्था प्राप्त नहीं होती है। अनेक अशुभ प्रकृतियों का बंधविच्छेद होने पर भी शुभ प्रकृतियों का बंध होता है । लेकिन पूर्व में अशुद्ध परिणामों के होने से जिन कर्मों की दीर्घस्थिति बंधती थी उनकी इस गुणस्थान में तीव्र विशुद्धि होने से अल्प-अल्प स्थिति बंधने लगती है और वह भी पूर्व-पूर्व से उत्तरोत्तर पल्योपम का असंख्यातवां भागहीन बंधती है। इस प्रकार का स्थितिबंध होने के कारण अध्यवसाय हैं । अतएव यहाँ अपूर्व स्थितिबंध एवं अध्यवसायों की वृद्धि के सम्बन्ध में विचार करते हैं । अपूर्व स्थितिबंध होने का क्रम अपूर्वकरणगुणस्थान के प्रथम समय से प्रारम्भ हो जाता है । पहले समय में जो स्थितिबंध होता है, उससे अनुक्रम से घटते-घटते उसके बाद का स्थितिबंध पल्योपम के असंख्यातवें भागहीन होता है । इस प्रकार प्रत्येक स्थितिबंध बदलता है। - इस गुणस्थान में त्रिकालवर्ती अनेक जीवों की अपेक्षा समय-समय असंख्य लोकाकाश प्रदेशप्रमाण अध्यवसायस्थान होते हैं और वे पूर्व-पूर्व समय से उत्तरोत्तर बढ़ते हुए होते हैं । जो इस प्रकार समझना चाहिये जिन्होंने भूतकाल में इस गुणस्थान के प्रथम समय को प्राप्त किया था, वर्तमान में प्राप्त करते हैं और भविष्य में प्राप्त करेंगे, उन सभी जीवों की अपेक्षा जघन्य से लेकर उत्कृष्ट पर्यन्त अनुक्रम से प्रवर्धमान असंख्यात लोकाकाश प्रदेशप्रमाण अध्यवसायस्थान होते हैं। क्योंकि एक साथ इस गुणस्थान पर चढ़े हुए प्रथम समयवर्ती कितने ही जीवों के अध्यवसायों में तरतमता सम्भव है और तरतमता की यह संख्या केवलज्ञानी भगवंतों ने इतनी ही देखी है । अतएव यह नहीं कहा जा सकता है कि इस गुणस्थान के प्रथम समय को प्राप्त करने वाले त्रिकालवर्ती जीव अनन्त होने से तथा परस्पर अध्यवसायों का तारतम्य www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only

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