Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 284
________________ योगोपयोगमार्गणा-अधिकार : परिशिष्ट २ समुद्घात में आत्मप्रदेश शरीर से बाहर निकलते हैं और फिर उस शरीरस्थ आत्मा के आकार प्रमाण हो जाते हैं। केवली आत्मा के द्वारा यह समुद्घात रूप प्रयत्न विशेष होने से इसे केवलिसमुद्घात कहते हैं। केवलिसमुद्घात करने वाले सभी केवली उसके पूर्व आयोजिकाकरण करते हैं । आयोजिकाकरण का अर्थ यह है कि आ-मर्यादा, योजिका-व्यापार, करणक्रिया अर्थात् केवलि की दृष्टिरूप मर्यादा के द्वारा अत्यन्त प्रशस्त मन-वचनकाया के व्यापार को आयोजिकाकरण कहते हैं। यद्यपि केवलज्ञानसम्पन्न आत्मा के योग का व्यापार प्रशस्त ही होता है, फिर भी यहाँ ऐसी विशिष्ट योगप्रवृत्ति होती है कि उसके अनन्तर समुद्घात अथवा योगों के निरोध की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है । आयोजिकाकरण के आवजितकरण और आवश्यककरण यह दो अपर नाम हैं। जिनका अर्थ इस प्रकार है तथाभव्यरूप परिणाम के द्वारा मोक्षगमन के प्रति सन्मुख हुई आत्मा के अत्यन्त प्रशस्त योग-व्यापार को आवजितकरण कहते हैं और जो क्रिया अवश्य करने योग्य होती है वह आवश्यककरण है । अर्थात् अत्यन्त प्रशस्त मन, वचन और काय व्यापार रूप क्रिया अवश्य करने योग्य होती है, इसीलिये वह आवश्यककरण कहलाती है। यद्यपि समुद्घात सभी केवली नहीं करते हैं, कुछ एक करते हैं और कुछ नहीं भी करते हैं, परन्तु यह आवश्यककरण तो सभी केवली करते हैं। इस प्रकार का आयोजिकाकरण अथवा आवश्यककरण करने के पश्चात् जो केवलज्ञानी आत्मा अपनी आयुस्थिति से वेदनीय आदि कर्म दीर्घस्थिति वाले हों तो उन्हें सम करने के लिये समुद्घात करती है, परन्तु जिस केवली आत्मा की आयुस्थिति के साथ ही पूर्ण समाप्त होने वाले कर्म हों तो वह समुद्घात नहीं करती है। यह समुद्घात अन्तर्मुहूर्त आयु शेष रहने पर होता है । यहाँ प्रश्न हो सकता है कि ऐसा कौनमा नियम है कि आयुकर्म से वेदनीय नाम और गोत्र कर्म ही अधिक स्थिति वाले होते हैं ? परन्तु किसी भी समय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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