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पंचसंग्रह (१)
समय उनका नाश हुआ, उस समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त आत्मा किट्टिगतयोग - किट्टिरूप योग वाली होती है । उस अन्तर्मुहूर्त में कुछ भी क्रिया नहीं करती है, परन्तु उसी स्थिति में रहती है । उसके बाद के समय में सूक्ष्म काययोग के अवलम्बन से अन्तर्मुहूर्त काल में सूक्ष्म वचनयोग का रोध करती है । सूक्ष्म वचनयोग का रोध करने के बाद अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त उसी अवस्था में रहती है । किसी भी अन्य सूक्ष्म योग को रोकने का प्रयत्न नहीं करती है ।
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उसके बाद के समय में सूक्ष्म काययोग के अवलम्बन से सूक्ष्म मनोयोग को अन्तर्मुहूर्त काल में रोकती है । उसके बाद भी अन्तर्मुहूर्त तदवस्थ रहती है । उसके बाद सूक्ष्म काययोग को अन्तर्मुहूर्त काल में रोकती है । उस सूक्ष्म काययोग को रोकने की क्रिया करती हुई वह सूक्ष्मक्रिया - अप्रतिपाति नामक तीसरे शुक्लध्यान पर आरूढ़ होती है । इस ध्यान की सहायता से मुख, उदर आदि का पोला भाग आत्मप्रदेशों से पूरित हो जाता है और शरीर के एक तृतीयांश भाग में से आत्मप्रदेश सिकुड़कर शरीर के दो तृतीयांश भाग में रहने योग्य प्रदेश वाले हो जाते हैं ।
सूक्ष्म काययोग को रोकती हुई आत्मा पहले समय में किट्टियों के असंख्यात भागों का नाश करती है और एक भाग शेष रखती है । फिर शेष रहे एक भाग के भी असंख्यात भाग करके एक भाग को शेष रख बाकी सभी भागों को दूसरे समय में नाश करती है । इस प्रकार समय-समय किट्टियों का नाश करती हुई सयोगिकेवलीगुणस्थान के चरम समय तक जाती है और चरम समय में जितनी किट्टियां रही हों उनका नाश कर आत्मा अयोगिकेवलीगुणस्थान में जाती है । सयोगिकेवलीगुणस्थान के चरम समय में सभी कर्म अयोगिकेवलीगुणस्थान के काल जितनी स्थिति वाले हो जाते हैं, मात्र जिन कर्मप्रकृतियों का अयोगिकेवल गुणस्थान में उदय नहीं है, उनकी स्थिति स्वरूपसत्ता की अपेक्षा समयन्यून रहती है । सत्ताकाल की अपेक्षा सामान्यतया प्रत्येक प्रकृति का सत्ताकाल योगगुणस्थान के समान होता है ।
सयोगिकेवलीगुणस्थान के चरम समय में
सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाति ध्यान,
सभी किट्टियों, सातावेदनीय के बंध, नाम और गोत्रकर्म की उदीरणा, योग,
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