________________
योगोपयोगमार्गणा-अधिकार : परिशिष्ट २
शुक्ललेश्या, स्थिति और रस का घात इन सात पदार्थों का एक साथ नाश होता है और उसके बाद के समय में आत्मा अयोगिकेवली हो जाती है । ___ इस अयोगिकेवलीगुणस्थान में आत्मा कर्मों का क्षय करने के लिये व्युपरतक्रिया-अनिवृत्ति नामक चौथे शुक्लध्यान पर आरूढ़ होती है। इस समय में स्थितिघात, रसघात, उदीरणा आदि किसी भी प्रयत्न के बिना अयोगिकेवली भगवान जिन कर्मों का उदय है, उनको भोग द्वारा क्षय करते हैं और जिन कमों का यहाँ उदय नहीं है, उनको वेद्यमान प्रकृति में स्तिबुकसंक्रम के द्वारा संक्रांत करते हुए अथवा स्तिबुकसंक्रम द्वारा वेद्यमान प्रकृति रूप से अनुभव करते हुए वहाँ तक जाते हैं, जब अयोगिकेवलीगुणस्थान का द्विचरम समय आता है । इस द्विचरम समय में देवद्विक आदि अन्यतर वेदनीय पर्यन्त बहत्तर प्रकृतियों का और शेष उदयवती तेरह प्रकृतियों का चरम समय में क्षय हो जाने पर परिपूर्ण रूप से निष्कर्म हुई आत्मा एक समयमात्र में इषुगति से गमन कर लोक के अग्रभाग में स्थित हो जाती है और अनन्तकाल उसी रूप में स्थित रहती है।
समुद्घात रूप प्रयत्न से प्रारम्भ हुई प्रक्रिया का यह अन्तिम निष्कर्ष है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org