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योगोपयोगमार्गणा - अधिकार : परिशिष्ट २
मूल के असंख्यातवें भागप्रमाण अपूर्वस्पर्धक होते हैं। शेष पूर्वस्पर्धक रूप ही रहते हैं । सभी पूर्वस्पर्धक अपूर्वस्पर्धक नहीं होते हैं ।
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अपूर्वस्पर्धक करने के अन्तर्मुहूर्त के उत्तरवर्ती समय में किट्टि करने की शुरुआत होती है, वह अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त होती है। एक-एक वीर्याणु की वृद्धि का नाश करके यानि अधिक अधिक वीर्याणु वाली वर्गणाओं का क्रम से नाश करके अनन्तगुणहीन वीर्याणु वाली एक-एक वर्गणा को रखने के द्वारा योग को अल्प करने को किट्ट कहते हैं । किट्टि करने के प्रथम समय में पूर्वस्पर्धकों और अपूर्वस्पर्धकों गत पहली आदि वर्गणाओं के अविभाग परिच्छेदों - वीर्याणुओं के असंख्यातवें भागों को खींचती है और एक असंख्यातवां भाग शेष रखती है तथा जीवप्रदेशों का भी असंख्यातवां भाग खींचती है और शेष सभी भागों को रखती है । इसका तात्पर्य यह है कि जितने जीवप्रदेशों को खींचती है, उतने जीवप्रदेशों में से जितने वीर्याणु खींचती है उतने वीर्याणुप्रमाण वीर्यव्यापार को रोकती है । यह किट्टिकरण के पहले समय की क्रिया है ।
दूसरे समय में पूर्व में खींचे गये वीर्याविभाग परिच्छेद -- वीर्याणु के भाग से असंख्यातगुणहीन वीर्याणुओं के भाग को खींचती है और जीवप्रदेशों के पहले समय में खींचे गये जीवप्रदेशों के असंख्यातवें भाग से असंख्यातगुण भागों को यानि असंख्यात भागों को खींचती है । इस प्रकार की किट्टियां अन्तर्मुहूर्त के चरम समय तक करती है ।
पहले समय में की गई किट्टियों से दूसरे समय में की गई किट्टियां असंख्यातगुणहीन हैं । इसी प्रकार शेष सभी समयों के लिये जानना चाहिये । यहाँ गुणाकार पल्योपम का असंख्यातवां भाग है । पहले समय में की गई कुल किट्टियां सूचिश्रेणि का असंख्यातवां भाग प्रमाण हैं । इसी प्रकार दूसरे आदि प्रत्येक समयों के लिये भी समझना चाहिये, परन्तु वे उत्तरोत्तर हीन-हीन हैं और सभी किट्टियों का कुल योग भी सूचिश्रेणि का असंख्यातवां भागमात्र है ।
किट्टियां करने की क्रिया पूर्ण होने के बाद भी पूर्वस्पर्धक और अपूर्वस्पर्धक शेष रहते हैं । सभी की किट्टियां नहीं होती हैं । किट्टि करने की क्रिया पूर्ण होने के पश्चात् पूर्वस्पर्धक और अपूर्वस्पर्धक का नाश करती है। जिस
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