Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 287
________________ ४६ पंचसंग्रह (१) इस प्रकार प्रति समय स्थितिघातादि करने पर चौथे समय में अपने प्रदेशों द्वारा जिसने सम्पूर्ण लोक पूर्ण किया है, ऐसी केवलज्ञानी आत्मा को वेदनीय आदि तीन कर्मों की स्थिति अपनी आयु से संख्यात गुणी हो जाती है और रस तो अभी भी अनन्तगुण ही है । ___ अब चौथे समय में क्षय होने से अवशिष्ट रही स्थिति और अवशिष्ट रहे रस के बुद्धि द्वारा अनुक्रम से संख्यात और अनन्त भाग करके, उनमें का एकएक भाग शेष रख बाकी की स्थिति के संख्यात भागों को और रस के अनन्त भागों को पांचवें अंतरों के संहरण के समय में क्षय करती है। इस प्रकार पहले चार समय पर्यन्त प्रति समय जितनी स्थिति और रस होता है उसके अनुक्रम से असंख्यात और अनन्त भाग करके एक-एक भाग शेष रख बाकी के असंख्यात और अनन्त भागों का घात करती है और चौथे समय में जो स्थिति और जो रस सत्ता में होता है, उसके संख्यात और अनन्त भाग करके एक भाग शेष रख बाकी के असंख्यात और अनन्त भागों को पांचवें समय में घात करती है । यहाँ से आगे छठे समय से लेकर स्थितिकंडक और रसकंडक का अन्तमुहूर्त काल में नाश करती है, यानि कि पांचवें समय में क्षय होने के बाद जो स्थिति और रस की सत्ता शेष रहती है उसके अनुक्रम से संख्यात और अनन्त भाग करके प्रत्येक का एक-एक भाग शेष रख बाकी की स्थिति के असंख्यात और रस के अनन्त भागों को क्षय करने का प्रयत्न करती है। उसमें से कितना ही भाग छठे समय में और कितना ही भाग सातवें समय में इस प्रकार समयसमय में क्षय करते अन्तर्मुहूर्त काल में समस्त असंख्यात और अनन्त भागों का क्षय करती है तथा जो स्थिति और रस शेष रहता है, उसके संख्यात और अनन्त भाग कर एक भाग शेष रख बाकी के संख्यात और अनन्त भागों को अन्तर्मुहूर्त काल में क्षय करती है । इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त काल में स्थितिघात और रसघात करते-करते वहाँ तक जाती है कि जब सयोगिकेवलीगुणस्थान का चरम समय आता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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