Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 279
________________ अपूर्वकरणगुणस्थान में उत्तरोत्तर अपूर्व स्थितिबंध एवं अध्यवसाय-वद्धि का विवेचन । पूर्व में नहीं हुए अथवा अन्य गुणस्थानों के साथ तुलना न की जा सके ऐसे स्थितिघात आदि कार्य और परिणाम जिस गुणस्थान में होते हैं, उसे अपूर्वकरणगुणस्थान कहते हैं। इस गुणस्थान में स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणि, गुणसंक्रमण और अपूर्वस्थितिबंध-ये पांच कार्य होते हैं। ये कार्य इससे पूर्व के गुणस्थानों में नहीं होते हैं और इन सबके कारण हैं-आध्यात्मिक अध्यवसाय । अध्यवसायों की अपूर्व शुद्धि होने पर ये स्थितिघात आदि कार्य होते हैं । जिन पर संक्षेप में प्रकाश डालते हैं । कर्मों की दीर्घ स्थिति को अपवर्तनाकरण द्वारा घटाकर अल्प करने को स्थितिघात कहते हैं और इसी प्रकार अशुभ प्रकृतियों के तीव्र रस को अपवर्तनाकरण द्वारा घटाकर कम कर देना रसघात है। इसका कारण है-पूर्व की अपेक्षा यहाँ बादर कषायों का सर्वथा अभाव हो जाना । क्योंकि स्थितिबंध और अनुभागबंध की कारण कषाय हैं और कषायों की मंदता के कारण इस गुणस्थान में अशुभ प्रकृतियों के स्थिति और अनुभाग बंध में अल्पता आते जाने से उनका घात होना अवश्यंभावी है । सत्ता में रहे हुए कर्मदलिकों का क्षय करने के लिये विशुद्ध अध्यवसायों के द्वारा उत्तरोत्तर उदय समय में उन कर्मदलिकों की पूर्व की अपेक्षा गुणाकार रूप से ऐसी रचना की जाती है कि आगे के समय में अधिक दलिकों का क्षय हो यह गुणश्रेणि का आशय है। इसी प्रकार सता में रहे हुए अबध्यमान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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